अख़लाक़ अहमद आहन
ग़ज़ल 8
नज़्म 6
अशआर 7
ग़म-ए-वजूद का मातम करूँ तो कैसे जिऊँ
मगर ख़ुदा तिरे दामन पे दाग़ है कि नहीं
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तिरे फ़िराक़ में हम ने बहाए अश्क-ए-जिगर
ये सब ने चाहा मगर आए तो लहू आए
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ये कैसी जगह है कि दिल खो रहा है
बयाबाँ है सहरा है गुलशन है क्या है
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रस्म-ए-दुनिया के सलासिल में गिरफ़्तारी है
मत ठहरना कि कहीं फाँस जवाँ-तर हो जाए
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राह-ए-हयात में न मिली एक पल ख़ुशी
ग़म का ये बोझ दोश पे सामान सा रहा
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