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बयान मेरठी

1840 - 1900 | मेरठ, भारत

दाग़ के समकालीन, उर्दू और फ़ारसी में शायरी की, आधुनिक शायरी के आंदोलन से प्रभावित होकर नये अंदाज़ की नज़्में भी लिखीं

दाग़ के समकालीन, उर्दू और फ़ारसी में शायरी की, आधुनिक शायरी के आंदोलन से प्रभावित होकर नये अंदाज़ की नज़्में भी लिखीं

बयान मेरठी के शेर

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कभी हँसाया कभी रुलाया कभी रुलाया कभी हँसाया

झिजक झिजक कर सिमट सिमट कर लिपट लिपट कर दबा दबा कर

याद में ख़्वाब में तसव्वुर में

कि आने के हैं हज़ार तरीक़

नहीं ये आदमी का काम वाइ'ज़

हमारे बुत तराशे हैं ख़ुदा ने

अदाएँ ता-अबद बिखरी पड़ी हैं

अज़ल में फट पड़ा जोबन किसी का

ये तासीर मोहब्बत है कि टपका

हमारा ख़ूँ तुम्हारी गुफ़्तुगू से

हज़ारों दिल मसल कर पैर से झुँझला के यूँ बोले

लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है

लहू टपका किसी की आरज़ू से

हमारी आरज़ू टपकी लहू से

वो पोशीदा रखते हैं अपना तअ'ल्लुक़

इधर देख कर फिर उधर देख लेना

शैख़ के माथे पे मिट्टी बरहमन के बर में बुत

आदमी दैर-ओ-हरम से ख़ाक पत्थर ले चला

वही उठाए मुझे जो बने मिरा मज़दूर

तुम्हारे कूचे में बैठा हूँ मैं मकाँ की तरह

वो हटे आँख के आगे से तो बस सूरत-ए-अक्स

मैं भी इस आईना-ख़ाना से निकल जाऊँगा

तन-परस्त जामा-ए-सूरत कसीफ़ है

बज़्म-ए-हुज़ूर-ए-दोस्त में कपड़े बदल के चल

दिल आया है क़यामत है मिरा दिल

उठे तअ'ज़ीम दे जोबन किसी का

पार दरिया-ए-शहादत से उतर जाते हैं सर

कश्ती-ए-उश्शाक़ की मल्लाह बन जाती है तेग़

नैरंगियाँ फ़लक की जभी हैं कि हों बहम

काली घटा सफ़ेद प्याले शराब-ए-सुर्ख़

हवा-ए-वहशत दिल ले उड़ी कहाँ से कहाँ

पड़ी है दूर ज़मीं गर्द-ए-कारवाँ की तरह

गौहर-ए-मक़्सद मिले गर चर्ख़-ए-मीनाई हो

ग़ोता-ज़न बहर-ए-हक़ीक़त में हूँ गर काई हो

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