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मेहर ज़र्रीं

1933 - 2014 | इंदौर, भारत

मेहर ज़र्रीं

अशआर 7

बस्ती में भी कुछ ऐसे अंधेरे हैं जहाँ पर

झुलसे हुए जिस्मों का शबिस्तान हैं सड़कें

ये अर्श से आना तो आग़ाज़-ए-मोहब्बत था

अब फ़र्श पे आए हैं अंजाम से खेलेंगे

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आप जो चश्म-तर हो गए

सारे ग़म मो'तबर हो गए

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दिल में मिरी वहशत ने पर जितने निकाले थे

मैं ने उन्हें बल दे कर ज़ंजीर बनाई है

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मक़ाम-ए-आदमी कुछ कम नहीं है

फ़रिश्तों से तो कम आदम नहीं है

ग़ज़ल 7

नज़्म 1

 

पुस्तकें 1

 

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