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नादान भौंरा

अबरार मोहसिन

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अबरार मोहसिन

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    आज नन्ही कँवल को ज़ुकाम हो गया था। बात ये हुई कि सर्दी बहुत थी और कँवल को पानी में खेलना बहुत अच्छा लगता था। घर में अम्मी और नर्सरी में आँटी बहुत मना करतीं, बहुत रोकतीं आँटी नर्सरी में समझातीं, मगर रबर के ग़ुब्बारों में पानी भर कर उसका फ़व्वारा बनाना, उसे दूसरों पर फेंकना और पानी के सारे खेल उसे बहुत अच्छे लगते थे और नंगे पाँव घूमने में तो उसे बहुत ही मज़ा आता था। बस फिर उसे ज़ुकाम हो गया। नाक से पानी। आँखों से पानी। आँखें लाल। आ-छीं खों, खों और फिर बुख़ार भी हो गया। अब वो नर्सरी कैसे जाती। तो उसे छुट्टी करनी पड़ी।
     
    घर पर अकेले लेटे-लेटे उसका जी बहुत घबरा रहा था। अम्मी घर के काम में लग गई थीं बहन भाई सब अपने-अपने स्कूल चले गए थे और अब्बा अपने दफ़्तर। पड़ोस के बच्चे भी सब अपने-अपने स्कूल जा चुके थे और बाहर गली में खेलने पर अम्मी बहुत ख़फ़ा होती थीं।
     
    जब लेटे-लेटे उसका जी घबराया तो वो चुपके से उठी और घर के सामने छोटे से बग़ीचे में चली गई और आहिस्ता-आहिस्ता अपनी गेंद से खेलने लगी। मगर अकेले कब तक खेलती। बस उसका ध्यान फूलों पर इधर से उधर उड़ती तितलियों की तरफ़ चला गया। रंग-बिरंगी तितलियाँ, लाल पीली नीली तितलियाँ, फूलों पर नाचती फिर रही थीं। वो एक तितली के पीछे भाग रही थी कि उसकी नज़र एक भौंरे पर पड़ गई।
     
    भिन्न-भिन्न करता काला-कलूटा भौंरा जल्दी-जल्दी एक फूल से दूसरे फूल पर और दूसरे से तीसरे पर उड़ता फिर रहा था। जब वो किसी फूल पर बैठता तो फूल की पतली सी डंडी झूलने लगती। नन्ही कँवल थोड़ी देर भौंरे को ग़ौर से घूरती रही और फिर जैसे कोई अपने आप से बोलने लगे, उसने बोलना शुरू कर दिया।
     
    मियाँ भौंरे। मियाँ भौंरे। तुम इतने परेशान क्यों हो? और तुम इतने काले-कलूटे क्यों हो? ये सब तितलियाँ तो कितनी रंग-बिरंगी और सुन्दर हैं?
     
    नन्ही कँवल एक आवाज़ सुन कर एकदम चौंक पड़ी।
     
    क्या तुम मेरी कहानी सुनोगी? उसने फिर वही आवाज़ सुनी और फिर उसे यक़ीन हो गया कि ये भौंरे की ही आवाज़ है। भौंरा भिन्न-भिन्न कर रहा था और उसी में से ये आवाज़ आ रही थी।
     
    क्यों! क्या तुम्हारी कोई कहानी है? कँवल ने हैरत से पूछा।
     
    हाँ सुनो! भौंरे ने जवाब दिया। मैं एक देस का राजा था। यहाँ से बहुत दूर देस का। मुझे सोने-चाँदी, हीरे-मोती से बड़ा प्यार था। मेरा महल सोने का था। उसमें चाँदी के दरवाज़े थे, हीरे-मोती के पर्दे थे। मैं सोने चाँदी के बर्तनों में खाता-पीता था। एक दिन मैंने अपने बाग़ में टहलते हुए सोचा। ये फूल, पत्ते, हरी-हरी घास सब सूख कर कूड़े का ढे़र बन जाते हैं और यहाँ मुझे चिड़ियों की चूँ-चूँ, कबूतरों की ग़ुटर-ग़ूँ का शोर भी अच्छा नहीं लगता था। बस मैंने एकदम हुक्म दिया। ये सारे बाग़ उजाड़ दिए जाएँ। फूल पत्ते नोच कर फेंक दिए जाएँ। चिड़ियों को मार दिया जाए। बाग़ में सोने-चाँदी के फूलों के पौदे लगाए जाएँ, उनमें सोने चाँदी की घंटियाँ बाँधी जाएँ।”
     
    बस मेरा हुक्म होने की देर थी। तमाम बाग़ उजड़ गए। चिड़ियाँ मर गईं। तितलियाँ भाग गईं और जगह-जगह सोने-चाँदी की घंटियाँ लगा दी गईं। मगर उसके बाद क्या हुआ। ये मत पूछो!
     
    क्या हुआ? कँवल ने हैरत से पूछा।
     
    मेरे देस के बच्चे जो बाग़ों में खेलते फिरते थे, तितलियों के पीछे दौड़ते-फिरते थे, चिड़ियों के मीठे गीत सुनते थे वो सब उदास हो गए और फिर बीमार हो गए। अब पढ़ने लिखने में उनका दिल न लगता था। इसलिए बच्चों के माँ-बाप परेशान हो गए। वो मुझसे नाराज़ हो गए। उन्हें बहुत ग़ुस्सा आया और एक दिन देस के सारे बच्चों ने और उनके माँ-बाप ने मेरे महल को घेर लिया। मुझे महल से निकाल दिया। मेरे सारे बदन पर कालिक मल दी। उन्होने कहा तुमने हमारे देस को उजाड़ दिया है। हमारे बच्चों को दुखी कर दिया है। उन्हें बीमार डाल दिया है। तुम्हारा सारा सोना-चाँदी हमारे किस काम का है। जाओ, यहाँ से चले जाओ। बाग़ की रूठी हुई बहारों, फूलों, कलियों, हरी-हरी घास और झूमते पौदों को ले आओ उन सब नाचती-गाती चिड़ियों और रंग-रँगीली थिरकती तितलियों को लाओ जिन्हें तुमने देस से भगाया है। उन सब को मना लाओ तो इस देस में आना।
     
    बस उसी दिन से मैं रूठे फूलों, कलियों और तितलियों को मनाता फिर रहा हूँ... मैं तुम्हारे इस हरे भरे देस में फूलों, पत्तों और हरी-हरी घास की ख़ुशामद करता फिर रहा हूँ। नन्ही कँवल! क्या तुम इनसे मेरे देस चलने के लिए कह दोगी। अब मुझे फूलों, पत्तों, कलियों, तितलियों, चिड़ियों सबसे बहुत प्यार हो गया है।
     
    नन्ही कँवल की अम्मी को जब अपने काम से ज़रा छुट्टी हुई तो वो उसे देखने उसके बिस्तर के पास आईं और जब वो वहाँ न मिली तो वो सीधी बाग़ में पहुंचीं। उन्होंने देखा कि कँवल फूलों की एक क्यारी के पास धूप में लेटी सो रही है और एक भौंरा उसके फूल जैसे लाल-लाल कल्ले के पास भिन्न-भिन्न करता हुआ उड़ रहा है।

     

    स्रोत:

    Sarita Shumara 87 Aug 1966 (Pg. 124)

      • प्रकाशक: विशवनाथ
      • प्रकाशन वर्ष: 1966

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