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शरारतों का एक दिन

क़ैसर तमकीन

शरारतों का एक दिन

क़ैसर तमकीन

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    मा’लूम नहीं ये किसकी शरारत थी कि मुझको ख़्वाह-म-ख़्वाह ही अव्वल नंबर का शैतान मशहूर कर दिया। मैं ख़ुद कभी-कभी सोचता कि क्या में शरीर हूँ। जब कुछ समझ में आता तो उन सब लोगों को किसी किसी तरह परेशान ज़रूर करता जो मुझको शरीर और शैतान कहते हैं

    मैं शैतान था या मुझको ज़बरदस्ती बना दिया गया, ये मैं कह नहीं सकता फिर भी सिर्फ़ एक दिन के क़िस्से आपको सुनाऊँगा और आप ख़ुद फ़ैसला कीजिएगा कि मेरे साथ कितनी ना-इंसाफ़ी हुई।

    हमारी छोटी ख़ाला की तबीयत कुछ ख़राब थी और हकीम साहब के मश्वरे से उनके खाने के लिए साबुदाना पकाया गया था। नानी अम्माँ ने साबुदाना का प्याला पानी में ठंडा होने के लिए रख दिया। मैंने सोचा कि ऐसे तो ठंडा होने में देर लगेगी ज़रा प्याले को पानी में चारों तरफ़ घुमाया जाए तो जल्दी ठंडा होगा। नानी की नज़र जो मुझ पर पड़ी तो इस ज़ोर से चिल्लाईं गोया मैं कोई बहुत बड़ा गुनाह कर रहा था। ये क्या शरारत हो रही है?” उन्होंने ग़ुस्से से कहा।

    मैंने घबरा कर उनकी तरफ़ पलट कर देखा। प्याला मेरे हाथ से ज़ोर से फिसल गया और पानी में डूब गया। नानी अम्माँ ने वो शोर मचाया कि मा’लूम होता था क़यामत गई हो। मैं सारे घर में छुपता फिरा और आख़िर छोटी ख़ाला ही के पलंग के नीचे घुस कर छिप गया। मुझे नानी अम्माँ पर बड़ा ग़ुस्सा रहा था। पलंग के नीचे नज़र पड़ी तो देखा नानी अम्माँ का बड़ा सा पानदान रखा था। मैंने सारी इलायचियाँ निकाल कर जेब में भर लीं और कत्थे-चूने में उनके क़िवाम की शीशी उलट दी। ये तो मैंने नानी अम्माँ से बदला लिया था अब इसमें शरारत कौन सी थी...

    जब वहाँ कुछ सन्नाटा हुआ तो मैं पलंग की पनाह से निकल कर बाहर दीवान-ख़ाने तक गया वहाँ डॉक्टर सऊद की नज़र मुझ पर पड़ गई और बुरी-बुरी तरह उन्होंने डाँट कर कहा, “बड़ी तुम्हारी शरारतें बढ़ती जा रही हैं। इतनी कुनैन पिलाऊँगा कि तबीयत हरी हो जाएगी।”

    डॉक्टर सऊद हर बात पर यही कहते थे, “तबीयत हरी कर दूँगा।”

    अब बताईए मैंने उनका क्या बिगाड़ा था जो डॉक्टर सऊद भी मुझको शैतान कहने लगे। मुझको अपनी बद-क़िस्मती पर बड़ा रोना आया और बहुत उदासी में टहलता हुआ बाहर बाग़ में चला गया वहाँ आम के दरख़्त पर ख़ूब मज़ेदार खट्टी-मीठी कैरियाँ हल्की हवा में झूल रही थीं। हर कैरी इस तरह हिल रही थी गोया प्यार से मुझको अपनी तरफ़ बुला रही हो, “मुझको खाओ...”

    मैंने सुना था (बुज़ुर्गों से) कि किसी को दावत ना-मंज़ूर नहीं करना चाहिए। चुनाँचे थोड़ी सी सोच-बिचार के बाद ही मैं दरख़्त पर चढ़ गया और अपने को अच्छी तरह पत्तों में छिपा लिया। अब मैं मज़े ले-ले कर कैरियाँ खा रहा था और जी चाहता था कि कहीं से नमक मिल जाए तो फिर मज़ा ही जाए।

    इतने ही में डॉक्टर सऊद वहाँ थोड़ी देर को रुके और मामूँ जान से बातें करने लगे। उन्होंने नुस्ख़ा एक हाथ में लिया दूसरे हाथ से जेब से क़लम निकाला और दाँतों से उसको खोला। (अभी कोई बच्चा ऐसे दाँतों से क़लम खोलता तो ख़ूब डाँटते) ख़ैर वो नुस्ख़े में कुछ लिखने लगे और उनकी साफ़-साफ़ चंदिया हल्की धूप-छाओं में बड़े प्यारे अंदाज़ से चमकने लगी। थोड़ी देर में मामूँ जान अंदर चले गए और मुझसे ज़ब्त हुआ तो मैंने एक कच्ची-पक्की अंबिया उनके सर पर ज़ोर से रसीद की। निशाना तो मेरा हमेशा से सच्चा था। डॉक्टर साहब “ओह माई गॉड...” कह कर सर पकड़ कर बैठ गए। अब उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा। मुझे डर लगा कि वो दरख़्त पर मुझको देख लें इसलिए मैंने मिनमिना कर कहा, “मैं तुझको कच्चा खा जाऊँगी।”

    डॉक्टर साहब बड़े कमज़ोर अक़ीदे के आदमी मा’लूम हुए, क्योंकि इतना सुनते ही वो इस तरह भागे कि उनकी हैट बाग़ के दरवाज़े पर ही पड़ी रह गई। (मैंने उसमें ख़ूब अम्बीयाँ भरीं।)

    जब मैं पेड़ से उतर कर दीवान-ख़ाने में पहुँचा तो वहाँ कोई भी था मैंने सोचा कि यहीं कहीं छुप कर सो जाऊँ और दोपहर गुज़ार दूँ मगर इतने ही में टेलीफ़ोन की घंटी बजी और कोई साहब बड़ी मोटी आवाज़ में बोले,

    “हेलो, डिप्टी साहब हैं?”

    “जी नहीं, आप कौन साहब बोल रहे हैं?” मैंने बड़ी शराफ़त से जवाब दिया।

    “अच्छा तो देखो हम राम बोल रहे हैं।” उन्होंने कहा और मैंने बड़ी संजीदगी से पूछा, “जी ऐम राम साहब बोल रहे हैं, अस्ल में मैं ऐम राज ही समझा था।

    वो फिर बोले, “नहीं ऐम राम नहीं भई, राम...”

    “अच्छा, भाई राम जी हैं... नमस्ते...”

    “ओफ़्फ़ो! भाई राम नहीं, राम, राम, फ़क़त राम… समझे…”

    “अच्छा, फ़क़त राम जी बोल रहे हैं... कहिए...”

    “ओफ़्फ़ो! तुम्हारी समझ में ही नहीं आता। मेरा नाम है मेजर राम...”

    “अच्छा मैनेजर राम साहब, आदाब अर्ज़...”

    “ओह डैम इट! तुम कौन हो?” उन्होंने झुँझला कर पूछा।

    “जी सरकार मैं नौकर बोल रहा हूँ...”

    “तुमको किस गधे ने नौकर रखा है!” उन्होंने बड़े ग़ुस्से में रौब झाड़ा।

    “देखिए मैं आपके बाप का नौकर नहीं हूँ, जो आप डाँट रहे हैं।” मैंने बड़े ग़ुस्से में जवाब दिया।

    उन्होंने टेलीफ़ोन रख दिया। मुझे मामूँ जान आते दिखाई दिए और मैंने वहाँ से खिसक जाना ही बेहतर समझा। मगर इसमें शरारत क्या थी। मैं सच-मुच उनका नाम समझ नहीं पाया था।

    अब मैं बावर्ची-ख़ाने की तरफ़ जा निकला जहाँ मद्दू ख़ाँ को खाना पका रहा था। मुझे भूक लग रही थी इसलिए मैंने उससे कहा, “एक भूका आया है लाओ एक रोटी उसको दे आऊँ...”

    मगर वो मेरी चाल में आने वाला नहीं था। बोला, “कह दीजिए आगे बढ़ो अभी खाना तैयार नहीं है...”

    मैं खड़ा हुआ खानों की ख़ुशबू सूँघता रहा। वो ज़ालिम सारी रोटियाँ डलिया में ढक कर अंदर ले गया। अब मेरी समझ में कुछ आया तो मैंने मिर्च का डिब्बा सालन में और नमक का मर्तबान तरकारी में उंडेल दिया और वहाँ से चल दिया।

    मुझे मा’लूम हो गया कि आज मेरा खाना बंद कर दिया गया है इस लिए मैं पड़ूँ में सिद्दीक़ी साहिब और उनकी बीवी किसी बात पर फ़ुर्सत से लड़ रहे थे। मुझको देख कर चुप हो गए। सिद्दीक़ी साहब की बीवी ने मुझको बहलाया फुसलाया। मेरे सामने चार लड्डू ला कर रखे और पूछने लगीं कि, “सुबह नाशते में क्या पका था। इस वक़्त खाना क्या पक रहा है। तुम्हारी मम्मी शाम को पार्टी में जाने की तैयारी कर रही हैं कि नहीं।”

    मैं इत्मीनान से लड्डू खाता रहा और उनको बताया कि, “हमारे यहाँ सुबह का नाशता बंद हो गया है इस वक़्त मिर्च का सालन और नमक तरकारी पकी है।”

    सिद्दीक़ी साहब ने बीवी की तरफ़ देखा और बीवी झुँझला कर बोलीं, “देखो कितना चालाक है। एक हमारे बच्चे हैं कि हर बात दूसरों के यहाँ जा कर बता देते हैं बेवक़ूफ़ कहीं के।”

    सिद्दीक़ी साहब बोले। सब तुम्हारी तर्बीयत का असर है।” इस पर उन दोनों में फिर झगड़ा शुरू हो गया और मैं वहाँ से भी खिसक गया।

    मैं घर में दीवान-ख़ाने की छत पर चढ़ गया। समझ में नहीं रहा था कि क्या करूँ। इतने में बड़े तख़्त पर मुझको क़ालीन रखा हुआ दिखाई दिया। मद्दू ख़ाँ ने क़ालीन धूप में डाला था और वो शायद अब शाम होते वक़्त उसको उठा कर नीचे ले जाने वाला था। मैं क़ालीन के अंदर छुप कर बैठ गया और सोचने लगा कि जब मद्दू ख़ाँ क़ालीन उठाने की कोशिश करेगा तो बड़ा मज़ा आएगा। धड़ा-धड़ दो-चार करारे हाथ किसी ने मोटे से रोल से क़ालीन पर जमाए और मैं जल्दी से दर्द से बिलबिलाता हुआ क़ालीन में से निकला। मद्दू ख़ाँ ने मुझको देखा तो हंसी के मारे उसके आँसू निकलने लगे। ग़लती मेरी थी। ये क़ालीन उसने गर्द झाड़ने के लिए रख दिया था और फ़ुर्सत पाते ही इधर गया। उसके हाथ में बड़ा ख़ौफ़नाक रोल था जिससे उसने ठुकाई की थी। अगर मोटा क़ालीन होता तो यक़ीनन मेरी हड्डी-पसली टूट गई होती। मैं सिसक-सिसक कर रो रहा था और सब लोग हंस रहे थे। बड़े भाई ने कहा, “मद्दू ख़ाँ का क्या क़ुसूर। ये क्यों यहाँ कर छुपा। ज़रूर कुछ छुपा कर खा रहा होगा।”

    वो सब लोग मेरे कान पकड़ कर अम्मी जान के हुज़ूर में ले गए। वहाँ सिद्दीक़ी साहब की बीवी बैठी थीं। उन्होंने जो मुझे इस हाल में देखा तो चुम्कार कर बोलीं, “क्या हुआ बेटा? क्यों रो रहे हो?”

    सबने जल्दी-जल्दी मेरी शरारतों की रिपोर्टें देना शुरू कीं। गोया कोई पीछे रह गया तो उसे इनआम नहीं मिल पाएगा। सिद्दीक़ी साहिब की बीवी बोलीं, “ए नहीं। बड़ा शर्मीला लड़का है। अभी सुबह हमारे यहाँ आया था। शरमाता तो इतना है कि मैंने चार लड्डू दिए वो भी उसने बड़ी मुश्किल से खाए।”

    अम्मी जान मारे शर्मिंदगी के रुहांसी सी हो गईं और उन्होंने बड़ी ख़ूनी नज़रों से मेरी तरफ़ देखा। मैं डर के मारे काँप गया मगर फिर मेरा दिमाग़ काम कर गया और मैं धड़ से ज़मीन पर गिर पड़ा। थोड़ी चोट तो ज़रूर लगी मगर फिर हुआ ये कि अम्मी जान का ग़ुस्सा फ़ौरन ख़त्म हो गया।

    ख़ाला बी बोलीं, “ऐ है बिचारे बच्चे ने सुबह से कुछ नहीं खाया और तुम सब लोग उसकी नाहक़ शिकायतें कर रहे हो...”

    सिद्दीक़ी साहब की बीवी बोलीं, “ऐ हाँ... शरारतें तो सभी बच्चे करते हैं अभी कल ही हमारे यहाँ गुल दान तोड़ गया। मगर हमने तो कुछ भी बुरा नहीं माना। तोड़-फोड़ किस के बच्चे नहीं करते...”

    भाई साहब अपनी कोशिशों में हार से गए। मैंने एक आँख खोल कर चुपके से देखा तो उनका चेहरा उतरा हुआ था। गोया अगर मेरी पिटाई हुई तो उनकी ज़िंदगी बे-लुत्फ़ हो जाएगी। मैंने चुपके से मद्दू ख़ाँ पर नज़र डाली तो उसकी बड़ी-बड़ी मूछें देख कर मुझे उसके वो पहलवानों के से करारे हाथ याद गए जो उसने क़ालीन पर जमाए थे। मेरी पीठ में अचानक दर्द होने लगा और मैं ज़ोर से कराहा। इस दर्दनाक कराह से अम्मी जान का भी दिल हिल गया। उन्होंने जल्दी से उठ कर मेरे माथे पर हाथ रखा। ये देख कर तो सब तमाशाई एक-एक कर के वहाँ से खिसक लिए।

    इतनी ही देर में अब्बू गए। वो दिन-भर की सारी रिपोर्ट सुन चुके थे। थोड़ा ग़ुस्सा तो यूँ भी था, अम्मी को मेरी तीमारदारी करते देखा तो उनका ग़ुस्सा और भी बढ़ गया, बोले, “तुम इस शैतान की नाज़-बरदारी कर रही हो।”

    अम्मी जान बोलीं, “नहीं बच्चा है। शरारत भी करते हैं। उस वक़्त तो सच-मुच बड़ी ज़ोर से ग़श खा कर गिरा।”

    अब्बू बोले, “बस तुम्हारे इसी लाड-प्यार से तो सब बच्चे ख़राब हो रहे हैं।”

    अम्मी बोलीं, “मैंने नहीं, आपकी हर वक़्त की डाँट-फटकार ने सब को बे-ग़ैरत बना दिया है।”

    अब्बू बोले, “हाँ तो मैं बच्चों को ख़राब कर रहा हूँ और तुम तो हीरा बना रही हो। अस्ल में तुम ही ने सबको चौपट किया है।”

    मैंने कहीं मौलवी साहब से सुना था कि जब दो आदमी लड़ें तो तीसरे आदमी को ईमानदारी से दोनों का क़ुसूर साबित कर के सुलह कराना चाहिए।

    मैंने जल्दी उठ कर अम्मी और अब्बू में सुलह करने के लिए कहा, “अब हटाइए जाने भी दीजिए। अस्ल में आप दोनों ने ही सब बच्चों को ख़राब किया है।”

    उसके बाद क्या हुआ। ये मैं नहीं बताऊँगा। आप ख़ुद ही समझ लीजिए कि बचपन का वही दिन मुझको क्यों अब तक याद है।

    स्रोत:

    Khilauna, New Delhi (Pg. 53)

      • प्रकाशक: मोहम्मद यूनुस देहलवी
      • प्रकाशन वर्ष: 1963

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