बात का अपनी न जब पाया जवाब
हम ये समझे वो दहन है ला-जवाब
बातें सुनवाईं लब-ए-ख़ामोश ने
वर्ना हम देते उसे क्या क्या जवाब
बे-निशाँ है वो कमर शक्ल-ए-दहन
कौन सी शय है नहीं जिस का जवाब
सादा काग़ज़ भेजा नामे के एवज़
वाँ से आया भी तो साफ़ आया जवाब
पूछता गर उस कमर का मैं निशाँ
ग़ैब से मिलता मुझे इस का जवाब
तुम जो कुछ कहते ज़बान-ए-तेग़ से
मैं दहान-ए-ज़ख़्म से देता जवाब
आज मुझ से बात अगर करते नहीं
देंगे ये बुत कल ख़ुदा को क्या जवाब
बे-दहन वो है तो मैं हूँ बे-ज़बाँ
यार की सूरत हूँ मैं भी ला-जवाब
कह के इक मिस्रा मह-ए-नौ रह गया
हो सका कब बैत-ए-अबरू का जवाब
बात सीधी की जो था मज़कूर-ए-क़द
ज़िक्र-ए-अबरू में दिया टेढ़ा जवाब
कीजिए क्या बात उस कज-तबअ' से
देगा चर्ख़-ए-वाज़गूँ उल्टा जवाब
बातें करता है जो पर्दा छोड़ कर
मुझ को देता है वो दर-पर्दा जवाब
आ गया ऐ वाए पैग़ाम-ए-अजल
पर न क़ासिद ले के कुछ आया जवाब
सुन के बैतें मेरे हासिद चुप रहे
ऐ 'वज़ीर' अपना सुख़न है ला-जवाब
स्रोत:
Daftar-e-Fasahat (Pg. ebook-76 page-60)
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लेखक:
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
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- संस्करण: 1847
- प्रकाशक: मतबा मुस्तफ़ाई, लखनउ
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