घर से दफ़्तर और फिर दफ़्तर से घर करती हुई
घर से दफ़्तर और फिर दफ़्तर से घर करती हुई
चल रही है रेल पटरी पर सफ़र करती हुई
ये जो मेरे आसमाँ पर छाई काली रात है
ये मुझे लगती नहीं हरगिज़ सहर करती हुई
हर क़दम पर मैं लरज़ता काँपता दम तोड़ता
'उम्र सारे काम बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर करती हुई
जी रहा हूँ बे-ख़बर बेहोश गिर्द-ओ-पेश से
जिस तरह इक भेड़ रेवड़ में सफ़र करती हुई
शा'इरी है टूटे शीशे काले काग़ज़ का अदब
बे-हिसी की सोच क़िस्सा मुख़्तसर करती हुई
तेज़ बारिश में उमँडते बादलों की घन-गरज
वादियों में तैरती झीलों को तर करती हुई
मेरे आगे क्यों किसी का जल नहीं सकता चराग़
क्यों हवा चलती नहीं मुझ पर असर करती हुई
ज़िंदगी पीरी फ़क़ीरी शा'इरी सूरत-गरी
ज़िंदगी इक वैश्या भी रात भर करती हुई
मैं कहाँ पाता सुराग़-ए-'ऐश-ओ-आसाइश 'निशात'
मेरे आगे मेरी बस्ती थी बसर करती हुई
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