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जाने क्यों इन दिनों मुज़्तरिब है तबी'अत मगर ठीक है

यासिर अबुल आस

जाने क्यों इन दिनों मुज़्तरिब है तबी'अत मगर ठीक है

यासिर अबुल आस

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    जाने क्यों इन दिनों मुज़्तरिब है तबी'अत मगर ठीक है

    इक 'अजब सी घुटन और दिल में है वहशत मगर ठीक है

    जाँ-बलब था कोई शिद्दत-ए-तिश्नगी से भरे शहर में

    सब तमाशाई बन के थे वाँ महव-ए-हैरत मगर ठीक है

    आज भी ज़ह्न पर तेरी यादों का पहरा है शाम-ओ-सहर

    इस क़दर ढा रही है सितम तेरी फ़ुर्क़त मगर ठीक है

    ख़ुद को कहते हो क़ाइद मगर ये बताओ कि इंसाँ भी हो

    ज़ालिमो लाश पर कर रहे हो सियासत मगर ठीक है

    साँस रोके हुए दिल को थामे हुए मैं तिरी बज़्म में

    मुंतज़िर हूँ कि हो मुझ पे नज़र-ए-'इनायत मगर ठीक है

    चारागर सारी दुनिया से हासिल मोहब्बत का मैं क्या करूँ

    मुझ को है बस तिरे हौसले की ज़रूरत मगर ठीक है

    आओ अब इस जहाँ के बनाए हुए सब क़वानीन को तोड़ कर

    क्यों कर दें हक़ीक़त में इक दिन बग़ावत मगर ठीक है

    वो मसीहा जो बातों से भरता था हर ज़ख़्म रुख़्सत हुआ

    अब कहाँ जाएँ किस से कहें दिल की हसरत मगर ठीक है

    ज़ुल्म-ओ-नफ़रत जिहालत 'अदावत का है बोल-बाला यहाँ

    इस ख़राबे में करते हो जीने की चाहत मगर ठीक है

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