करम हो कर 'अता हो कर बरस जूद-ओ-सख़ा हो कर
करम हो कर 'अता हो कर बरस जूद-ओ-सख़ा हो कर
कभी सैराब कर दे तन-बदन काली घटा हो कर
बिछड़ना था मुक़द्दर वो मगर बिछड़ा ख़फ़ा हो कर
था जिस का डर रहा आख़िर वही इक सानिहा हो कर
सवाली हो अगर तो 'आजिज़ी से सर झुका रक्खो
नहीं जचते ये तेवर ये अना हरगिज़ गदा हो कर
करें तदबीर मा-हासिल मगर मा'लूम है इस का
हैं सुनते आए रहता है मुक़द्दर का लिखा हो कर
ख़ुदाई का ये लहजा दूरियाँ देखो बढ़ा देगा
समझ लेना ख़सारा ही उठाओगे ख़ुदा हो कर
मिलन में और जुदाई में अलग हैं रंग जज़्बों के
सदा-ए-दर्द हो रहना कभी रहना ग़िना हो कर
मिटा देने से ख़ुद को मंज़िलें मिलती हैं उल्फ़त में
न खो देना किसी दिन तुम मुझे सर्फ़-ए-अना हो कर
किसी की आस है यूँही नहीं ये लौ लगी इस को
पपीहा दिल का रहता है जो यूँ नग़्मा-सरा हो कर
बला है 'इश्क़ लोगों ने बहुत समझाया था लेकिन
न पूछो लज़्ज़तें पाईं जो इस में मुब्तला हो कर
है क्या अल्फ़ाज़ की जादूगरी गोया समा'अत में
खिलाते हैं कई गुल उन लबों से जो अदा हो कर
नहीं था सहल मिट्टी का सफ़र कुंदन तलक 'नसरीं'
'अता-ए-'इश्क़ है आख़िर रहे हम कीमिया हो कर
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