रिदा-ए-ला-मकाँ मेरी न बज़्म-ए-कुन-फ़काँ मेरी

रिदा-ए-ला-मकाँ मेरी न बज़्म-ए-कुन-फ़काँ मेरी
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
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रिदा-ए-ला-मकाँ मेरी न बज़्म-ए-कुन-फ़काँ मेरी
मुझे ले आई है महरूमी-ए-क़िस्मत कहाँ मेरी
ज़बाँ-ज़द मिसरा'-ए-सानी है मेरा एक मुद्दत से
न सुब्ह-ए-ज़ू-फ़िशाँ मेरी न शाम-ए-बे-कराँ मेरी
कहें तो मुख़्तसर कर दूँ अभी रूदाद-ए-उल्फ़त को
फ़रिश्ते सो न जाएँ सुनते सुनते दास्ताँ मेरी
ज़माना दर्स-ए-‘इबरत ले मिरे हाल-ए-परेशाँ से
जहाँ दोहरा रहा है किस लिए फिर दास्ताँ मेरी
तलातुम-ख़ेज़ मौजें बढ़ के मुझ को रास्ता देंगी
कहाँ तक ताब लाएगा ये बहर-ए-बेकराँ मेरी
हक़ीक़त-आश्ना होता नहीं हर आश्ना मेरा
शब-ए-ग़म क्यों नहीं बनती है आख़िर राज़-दाँ मेरी
मिरे अजज़ा-ए-हस्ती की ख़बर तो ख़ैर क्या कहिए
यहाँ ढूँडे से कब मिलती है ख़ाक-ए-आशियाँ मेरी
जहाँ से नज़्अ' की हिचकी ने रोका था फ़साने को
वहीं से छेड़ दी आ कर ये किस ने दास्ताँ मेरी
क़फ़स में डाल दी है आशियाँ की तरह बिल-आख़िर
गुज़र जाती वगरना 'उम्र-ए-रफ़्ता राएगाँ मेरी
कहीं ऐसा न हो ठुकरा दूँ बज़म-ए-‘आलम-ए-इमकां
मोहब्बत से न हो जाए तबी'अत बद-गुमाँ मेरी
जहाँ भी तीलियाँ रखता हूँ बहर-ए-आशियाँ-बंदी
वहीं से टूटने लगती है शाख़-ए-आशियाँ मेरी
फ़ना की मंज़िलों से ताइर-ए-जाँ पार हो जाता
मगर हद बन गए आख़िर यही कौन-ओ-मकाँ मेरी
यही तो बात है जिस पर 'मुज़फ़्फ़र' नाज़ है मुझ को
जबीं को चूमता है प्यार से हिन्दोस्ताँ मेरी
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