वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे
वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे
जब तक कि तुम्हें शहर में रुस्वा न करेंगे
घबरा गए बेताबी-ए-दिल देख के ऐ जान
ठहरो तो अभी हिज्र में क्या क्या न करेंगे
मर जाऊँ तो मर जाऊँ बुरा मानें तो मानें
फिर कैसे मसीहा हैं जो अच्छा न करेंगे
वो हुस्न में कामिल हैं तो हम सब्र में यकता
ता उम्र कभी ज़िक्र भी उन का न करेंगे
छुप छुप के कहेंगे जो छुपाने के सुख़न हैं
हम तुम से किसी बात का पर्दा न करेंगे
बदनामी से डरते हो अबस इश्क़ में ऐ 'बर्क़'
कब तक बशर इस बात का चर्चा न करेंगे
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