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बाबू राव पाटिल

सआदत हसन मंटो

बाबू राव पाटिल

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    ग़ालिबन सन अड़तालीस की बात है कि बाबू राव से मेरी मुलाक़ात हुई। मैं उन दिनों हफ़्ता-वार मुसव्विर एडिट किया करता था, तनख़्वाह वाजिबी थी, यानी कल चालीस रुपये माहवार मुसव्विर का मालिक नज़ीर लुधियानवी चाहता था कि मेरी इस आमदनी में कुछ इज़ाफ़ा हो जाये, चुनांचे उसने मेरा तआरुफ़ बाबू राव पाटिल एडिटर फ़िल्म इंडिया से कराया।

    इस से पहले कि मैं अपनी इस मुलाक़ात का हाल बयान करूँ मुनासिब मालूम होता है कि मैं ये बताऊं कि फ़िल्म इंडिया मारज़-ए-वुजूद में कैसे आया। आपको याद होगा, एक ज़माना जब पूना की प्रभात फ़िल्म कंपनी अपने पूरे उरूज पर थी। अमृत मंथन और अमीर ज्योति जैसे अमर फ़िल्म पेश कर के उसने हिन्दुस्तान के अकनाफ़-ओ-अतराफ़ में ग़ैर-मामूली शोहरत हासिल कर ली थी, अब वो एक मामूली इदारा नहीं रहा था बल्कि प्रभात नगर में तब्दील हो चुका था। जिसका हर रुकन-ओ-इजतिहाद के नशे में मख़्मूर था। शांताराम, सय्यद फ़तह लाल, ढाइबर... सबको एक ही लगन थी कि उनकी कंपनी फ़न और तकनीक में सबको पीछे छोड़ जाये।

    इसी ज़माने में जबकि प्रभात, विसात इख़्तियार कर रही थी और हामिला औरत की तरह ख़ूबसूरत और बा-वक़ार थी, उसने अपने बतन से तीन बच्चे पैदा किए।

    (1) फेमस पिक्चर्ज, जो प्रभात के फिल्मों का वाहिद तक़्सीम-कार इदारा मुक़र्रर हुआ, उस के मालिक बाबू राव पाई थे।

    (2) बी. पी सामंत ऐड कंपनी। इश्तिहारों के तक़्सीम-कार प्रभात के तमाम फिल्मों की नश्र-ओ-इशआत का काम इस इदारे के सपुर्द हुआ।

    (3) न्यू जैक प्रिंटिंग प्रेस... गुमनाम सा प्रेस था, उस के मालिक पारकर थे उनको प्रभात ने अपने तमाम पोस्टरों, दस्ती इश्तिहारों और किताबचों की छपाई का काम तफ़्वीज़ कर दिया।

    फ़िल्म इंडिया, न्यू जैक प्रिंटिंग वर्क़्स से पैदा हुआ, पारकर बाबू राउ का दोस्त था, मामूली सा पढ़ा लिखा आदमी, इन दोनों ने मिलकर प्लान बनाया, प्रेस मौजूद था, काग़ज़ भी दस्तियाब हो सकता था। क्योंकि इन दिनों बहुत सस्ता था, बी. पी सामंत कंपनी मौजूद थी, इस से प्रभात फ़िल्म कंपनी के अलावा दूसरी फ़िल्म कंपनियों के इश्तिहार मिल सकते थे, ज़ाहिर है कि सब लवाज़िम मौजूद थे... और बाबू राव बड़ा मेहनती आदमी है और दक़ी क़ारस भी, इस के अलावा वो ख़्वाब देखने वाला आदमी नहीं, अंग्रेज़ी मुहावरे के मुताबिक़ वो कील के सर पर चोट लगाना जानता है, चुनांचे जब फ़िल्म इंडिया का पहला पर्चा शाया हुआ, तो ये वाक़िया है हिन्दुस्तान में फ़िल्मी सहाफ़त का एक नया और अनोखा दौर शुरू हुआ।

    बाबू राव के क़लम में फ़साहत थी, बलाग़त थी, गुंडों की सी कज-कुलाही भी थी, उस के अलावा इस में एक नाक़ाबिल-ए-नक़्ल तंज़ और मज़ाह था, एक ज़हर था, जो मैं समझता हूँ यहां हिन्दुस्तान में किसी अंग्रेज़ी लिखने वाले अदीब के क़लम को नसीब नहीं हुआ।

    बाबू राव के क़लम की जिस ख़ूबी ने इस की धाक जमाई वो उस का नोकीला, बहुत ही नोकीला तंज़ था जिसमें हल्का सा गनडपना भी शामिल था। इस सिन्फ़ से हिन्दुस्तानी आँखें बिलकुल ना-आशना थीं, इस लिए उस की तहरीरें लोगों के लिए चाट का मज़ा देने लगीं।

    बाबू राव बड़े ठसे का आदमी है, उसने अपना दफ़्तर पालो स्ट्रीट की मुबारक बिल्डिंग के एक वसीअ-ओ-अरीज़ दफ़्तर में बाबू राव से मेरी पहली मुलाक़ात हुई, उस वक़्त तक फ़िल्म इंडिया के ग़ालिबन सात आठ शुमारे निकल चुके थे, जो मैं मुसव्विर के दफ़्तर में देख चुका था और मुतअस्सिर हुए बग़ैर रह सका था।

    मेरा ख़याल था ऐसी सुथरी अंग्रेज़ी लिखने वाला और नोकीले तंज़ का मालिक, दुबला पतला और तीखे तीखे नक़्शों वाला आदमी होगा। मगर जब मैं ने एक जाट को एक जहाज़ी मेज़ के पास घूमने वाली कुर्सी पर बैठे देखा तो मुझे सख़्त नाउम्मीदी हुई, उस के चेहरे का कोई नक़्श, कोई ख़त ऐसा नहीं था, जिसमें उस के क़लम का हल्का सा अक्स भी नज़र सके, छोटी छोटी आँखें, चौड़ा चकला चेहरा, मोटी नाक बड़ा वाहियात लब-ए-दहान, बद-नुमा दाँत... लेकिन पेशानी बड़ी।

    जब वो मुझसे हाथ मिलाने के लिए उठा तो मुझे मालूम हुआ कि वो मुझसे ऊंचा है, यानी काफ़ी दराज़-क़द है। मज़बूत डीलडौल, लेकिन जब उसने हाथ मिलाया तो गिरफ़्त बड़ी ढीली, और जब उसने उर्दू में बातचीत शुरू की तो मेरा सारा मज़ा किरकिरा हो गया, गंवारों का सा लब-ओ-लहजा, बात बात में बंबई के मवालियों की तरह साला कहता था और गालियां बकता था।

    मैं ने ख़याल किया, शायद इस लिए कि इस को उर्दू नहीं आती, लेकिन जब उसने टेलीफ़ोन पर किसी से अंग्रेज़ी में गुफ़्तगू शुरू की तो ख़ुदा की क़सम मेरे दिल में शक पैदा हुआ, कि ये शख़्स हरगिज़ हरगिज़ वो बाबू राव पाटिल नहीं जो फ़िल्म इंडिया का ईदारिया लिखता है। बाम्बे कॉलिंग रक़म करता है और सवालों के जवाब देता है, मआज़-अल्लाह क्या लब-ओ-लहजा था, ऐसा लगता था कि अंग्रेज़ी, मरहटी में और मरहटी, बंबई की गंवार बोली में बोल रहा है यहां भी हर फ़ुल स्टॉप के बाद या इस से पहले एक साला ज़रूर आता था।

    मैंने दिल में कहा। अगर यही साला बाबू राव पाटिल है तो साला में सआदत हसन मंटो नहीं हूँ।

    थोड़ी देर गुफ़्तगू हुई, नज़ीर लोधिया नवी ने मेरी बहुत तारीफ़ की। इस पर बाबू राव ने कहा। मुझे मालूम है। वो साला आबिद गुल-रेज़ हर हफ़्ते मुझको मुसव्विर पढ़ के सुना जाता है। फिर वो मुझ से मुख़ातब हुआ। ये साला मंटो क्या हुआ मैं ने उस को इस का मतलब समझा दिया।

    मुआमला सिर्फ़ इतना था कि प्रभात के किसी फ़िल्म की चोपड़ी यानी किताबचे में जो कहानी का ख़ुलासा था, और जिसे बाबू राव ने लिखा था, मुझे उस का उर्दू में तर्जुमा करना था, मैं ने ये ख़ुलासा ले लिया और तर्जुमा कर के नज़ीर लुधियानवी के हाथ उसे भिजवा दिया। जो उसने बहुत पसंद किया।

    इस के बाद देर तक मेरी उस की मुलाक़ात हुई, मैं दफ़्तर से बहुत कम बाहर निकलता था। फ़िल्म कंपनियों में मुलाज़िमत हासिल करने के लिए दर-ब-दर मारे फिरना, ये मैं उस वक़्त भी अपनी शान के ख़िलाफ़ समझता था।

    बाबू राव ने किसी तरह शांता राम को उकसाया कि वो प्रभात का एक माहाना पर्चा शायेअ करे, जिसमें वो बिलकुल नए अंदाज़ से उनकी फ़िल्म कंपनी की और उनके फिल्मों की पब्लिसिटी करेगा, शांता राम गो अनपढ़ था। मगर आर्टिस्ट था। और बड़ा आला पाए का, तबीयत में उपज भी। फ़ौरन मान गया, बस फिर क्या देर थी प्रभात निकल आया और बड़ी शान से बाबू राव ने वाक़ई बड़े अनोखे और प्यारे अंदाज़ में प्रभात वालों और उनके फिल्मों की पब्लिसिटी की।

    नज़ीर लुधियानवी बड़ा वक़्त-शनास और मतलब निकालने वाला आदमी था। फ़ौरन बाबू राव के पास पहुंचा, ये स्कीम लेकर कि प्रभात के हर शुमारे के कुछ हिस्से मुसव्विर में भी शायेअ होने चाहिएं।

    मैं यहां एक बात अर्ज़ कर दूँ कि बाबू राव ने चूँकि मुफ़्लिसी के दिन देखे हैं, इस लिए वो हाजत मंदों पर हमेशा मेहरबान हो जाता है, इस को मालूम था कि नज़ीर की माली हालत कोई ज़्यादा अच्छी नहीं, इस लिए वो फ़ौरन उस की तजवीज़ मान गया। लेकिन उस को शुबह था कि जो कुछ उसने अंग्रेज़ी में लिखा है, उर्दू में मुंतक़िल हो सकेगा। नज़ीर ने मेरा नाम लिया तो वो किसी क़दर मुतमइन हो गया।

    ईमान की बात है मेरा अंग्रेज़ी का इल्म बहुत महदूद है। बाबू राव ने जो कुछ लिखा था वह मेरी समझ से बालातर तो ना था। मगर उस का उर्दू में मिन-ओ-अन तर्जुमा करना बहुत ही दुशवार था। इस का एक ख़ास तर्ज़ था, अलफ़ाज़ की नशिस्त-ओ-बर्खास्त एक ख़ास ढब की थी, अंग्रेज़ी और अमरीकी दोनों मुहावरे थे। बाअज़ अलफ़ाज़ पर वो खेल खेल गया था, अब मैं क्या करता। बहुत सोच बिचार के बाद यही बात समझ में आई कि मज़मून सामने रख लूं और उस के मफ़हूम को अपने अंदाज़ और अपनी ज़बान में मुंतक़िल कर दूँ, चुनांचे मैं ने यही किया।

    जब ये ख़ुराफ़ात छिप गई तो नज़ीर, पर्चा ले कर उस के पास गया।

    मैं भी उस के साथ था, उसने मुझे देखते ही कहा। साला तू भी बाबू राव बनने की कोशिश करता है।

    मैंने बड़ी संजीदगी के साथ उस को सारी बात समझा दी कि तुम्हारी तहरीर को उर्दू में लाने की सिर्फ़ एक यही सूरत थी... मैं समझता हूँ मैंने जो किया जायज़ है।

    दाएं हाथ की आख़िरी उंगलियों में सिगरेट दबाए ठेट देहातियों और मवालियों की तरह उसने मुट्ठी बंद कर के ज़ोर का कश लिया और कहने लगा। साला हम ने आबिद गुल-रेज़ से सब सुना। बहुत मज़ा आई... मैंने उस को कहा... (गाली...) तो तू कहता था कि उर्दू का बहुत बड़ा राईटर है।

    मैं इस दाद से बहुत ख़ुश था। चुनांचे तय हो गया कि आइन्दा तर्जुमे का ये सिलसिला इसी तरह जारी रहेगा... मगर दो ही पर्चों के बाद बंद हो गया, क्योंकि प्रभात फ़िल्म कंपनी में इतने ज़ाइद शाहाना ख़र्च की कफ़ील नहीं हो सकती थी।

    मैं ज़्यादा तफ़्सीलात में नहीं जाना चाहता कि वो मुझे खींच कर और मौज़ूआत की तरफ़ ले जाएंगे, जो इस दास्तान के रेशों के अंदर छिपे हुए हैं, मुझे असल में बाबू राव पाटिल के मुताल्लिक़ अपने तास्सुरात बयान करना हैं।

    चंद ऐसे वाक़ियात हुए कि नज़ीर से मेरे... न... अभी नहीं, ये बाद की बात है, जी हाँ... मैंने शादी का इरादा कर लिया, इन दिनों में इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी में इसी रुपये माहवार पर नौकर हुआ था, यहां एक बरस मुलाज़मत की। मगर तन्ख़्वाह सिर्फ़ आठ महीने की मिली। चार महीने की बाक़ी थी कि इस कंपनी का दीवाला पिट गया।

    यहां से मैं सरोज फ़िल्म कंपनी में चला गया। मगर ऐसा लगता है कि मैं अंदर दाख़िल हुआ ही था कि कंपनी ने बंद होने का इरादा कर लिया था, मुझे यक़ीन होने वाला था कि मैं सब्ज़ क़दम हूँ कि इस कंपनी के बंद होने के थोड़े ही अरसे बाद उस के सेठ ने हाथ पांव मार कर उसी चार-दीवारी में एक नई कंपनी खड़ी कर दी, यहां मैं सौ रुपये माहवार पर मुलाज़िम हुआ। एक कहानी लिखी। ये तीन चौथाई फिल्माई भी गई। इस दौरान में मेरा निकाह हो चुका था। अब सिर्फ़ रुख़्सती बाक़ी थी, जिसके लिए मुझे रुपये की ज़रूरत थी, ताकि कोई मामूली सा फ़्लैट किराए पर लेकर उसे घर में तब्दील कर सकूँ। जब रुपया मांगने का वक़्त आया तो सेठ नानू भाई ने साफ़ जवाब दे दिया। और कहा कि मेरी हालत सख़्त ख़राब है, उस की हालत तो जो ख़राब थी सो थी लेकिन ये ग़ौर फ़रमाइये मेरी हालत कितनी ख़राब होगी। मैंने सेठ को सारे वाक़ियात से आगाह किया। मगर उस के कान पर जूं तक ना रेंगी, मुआमला बढ़ गया। तू तू मैं मैं शुरू हुई तो उसने मुझे कंपनी से निकाल बाहर किया। मेरी इज़्ज़त पर ये साफ़ हमला था, मेरा वक़ार मिट्टी में मिल गया था, चुनांचे मैं ने तहय्या कर लिया कि वहीं बाहर सदर दरवाज़े पर बैठ कर भूक हड़ताल शुरू कर दूंगा।

    इस मुआमले की ख़बर किसी किसी तरीक़े से बाबू राव तक पहुंच गई, उसने पहले तो नानू भाई डेसाई को फ़ोन पर बहुत गालियां दीं। जब उस का कुछ असर हुआ। तो सीधा स्टूडियो पहुंचा और बारह सौ रुपये का फ़ैसला आठ सौ रुपये में करा दिया। मैंने कहा चलो भागते चोर की लंगोटी ही सही।

    मेरा घर बस गया।

    हाँ मैं आपसे ये कहना भूल गया, मैं जिस ज़माने में इमपीरियल फ़िल्म कंपनी में था, उन दिनों वहां एक बहुत ही शरीफ़ उत-तबअ ऐक्ट्रस पदमा देवी के नाम से थी, मेरे पहले फ़िल्म किसान कन्या (रंगीन) की हीरोइन यही थी, मेरे उस के बड़े दोस्ताना ताल्लुक़ात थे, लेकिन उस का सही यानी जिस्मानी ताल्लुक़ बाबूराव पाटिल से था, जो इस पर बड़ी कड़ी निगरानी रखता था।

    यहां आपको ये बता देना भी मुनासिब मालूम होता है कि बाबू राव पाटिल की उस वक़्त दो बीवियां थीं, उनमें से एक को मैंने देखा है जो डाक्टर थी।

    ख़ैर चंद ऐसे वाक़ियात हुए कि नज़ीर ने मेरी बे-लौस ख़िदमत और दोस्ती ठुकरा दी... हम दोनों अलग हो गए, इस का मुझे अफ़सोस था, मैं इस से लेता ही क्या था, लेकिन फिर भी वो मेरे मकान का किराया जो पच्चीस रुपये बनता था अदा कर दिया करता था, उन दिनों मैं ने रेडियो में भी लिखना शुरू कर दिया था। लेकिन अब चूँकि मेरी अकेली जान का सवाल नहीं था, इस लिए मैं ने सोचा कि बाबू राव से मिलना चाहिए... लेकिन ठहरिये... मैं आगे चला गया। दरमियान में मुझे आपसे कुछ और भी कहना था।

    मेरी शादी अजीब-ओ-ग़रीब हालात में हुई थी, कुछ ऐसे क़िस्से थे कि मेरे घर में सिवाए मेरी वालिदा के और कोई नहीं था, फ़िल्म इंडस्ट्री के तमाम आदमी रहे थे। उनकी ख़ातिरदारी कौन करता, एक ज़ईफ़ औरत बेचारी क्या कर सकती थी।

    बाबू राव को कहीं से मालूम हुआ कि मंटो परेशान है तो उसने अपनी चहेती रंगीन मलिका पदमा देवी को भेज दिया कि जाओ उस की वालिदा का हाथ बटाओ, मुझे अच्छी तरह याद है, पदमा ने मेरी बीवी को शायद कोई ज़ेवर वग़ैरा भी दिया था।

    “चलिए, अब चलते हैं... जी हाँ।” मैं बाबू राव के पास पहुंचा, इस लिए कि वो उर्दू का एक हफ़्ता-वार अख़बार कारवां भी निकालता था, सिर्फ इस ग़रज़ से कि आबिद गुल-रेज़ के लिए जो इस का दोस्त था, रोज़ी का एक वसीला बन जाये, मगर वो एक लाउबाली तबीयत का शायर आदमी था और इन दिनों अख़बार से अलैहदा हो कर मुकालमा नवीसी, गीत-निगारी और फ़िल्म साज़ी के चक्कर में पड़ा था।

    मैंने बाबू राव को बर-तरफ़ी का वो नोटिस दिखाया। जो मुझे नज़ीर ने भेजा था, उसे देख कर बाबू राव एक लहजे के लिए चकरा गया, बहुत बड़ी गाली दे कर उसने सिर्फ़ इतना कहा। “ऐसा?”

    मैंने इस्बात में सर हिला दिया।

    बाबू राव ने फ़ौरन ही कहा। “तो साला तुम इधर क्यों नहीं जाता... अपना कारवां है... साले को पूछने वाला ही कोई नहीं।”

    मैंने जवाब दिया। “अगर ऐसी बात है तो मैं तैयार हूँ।”

    बाबू राव ने ज़ोर से आवाज़ दी। “रीटा”

    दरवाज़ा खुला। एक मज़बूत पिंडुलियों और सख़्त छातियों वाली गहरे साँवले रंग की क्रिस्चियन लड़की अंदर दाख़िल हुई।

    बाबू राव ने उसे आँख मारी “इधर आओ।”

    वो उस की कुर्सी के पास चली गई।

    बाबू राव ने कहा। “मुँह इधर करो।”

    उसने हुक्म की तामील की।

    बाबू राव ने एक ऐसा धप्पा उस के चूतड़ों पर मारा कि उस के कूल्हों का सारा गोश्त हिल गया। “जाओ काग़ज़ पेंसिल लाओ।” लड़की जिसका नाम रीटा कार्लाइल था और जो बाबू राव की ब-यक वक़्त सेक्रेटरी, स्टेनो और दाइश्ता थी, चली गई और फ़ौरन ही शॉर्ट हैंड की कापी और पेंसिल ले आई। बाबू राव मेरे नाम का अपाइंटमेंट लेटर लिखवाने लगा। तनख़्वाह के पास पहुंचा तो रुक गया और मुझसे मुख़ातब हुआ। “क्यों मंटो कितना चलेगा।”

    फिर ख़ुद ही कहा। “एक सौ पच्चास ठीक है।”

    मैं ने कहा। “नहीं”

    बाबू राव संजीदा हो गया। “देखो मंटो... ये साला कारवां ज़्यादा अफोर्ड नहीं कर सकता।”

    मैं ने कहा। “तुम मेरा मतलब ग़लत समझे हो... मैं साठ रुपय माहवार पर काम करूँगा। इस से कम इस से ज़्यादा।”

    बाबू राव समझा, मैं उस से मज़ाक़ कर रहा हूँ, पर जब मैं ने उसे यक़ीन दिलाया कि मेरा ऐसा कोई मतलब नहीं तो वो अपने मख़्सूस गंवार लहजे में बोला। “साला मैड मिला।”

    मैंने उस से कहा। “मैं मैड मिला यानी पागल मिला ही सही। लेकिन मैं ने ये साठ रुपये इस लिए कहे हैं कि मैं वक़्त का पाबंद नहीं रहना चाहता। जब चाहूँगा आऊँगा। जब चाहूँगा चला जाऊँगा। लेकिन कारवां वक़्त पर निकलता रहेगा।”

    बात तय हो गई।

    मैं ने बाबू राव के दफ़्तर में ग़ालिबन छः सात महीने काम किया। इस दौरान में मुझे उस की अजीब-ओ-ग़रीब शख़्सियत के मुताल्लिक़ कई बातें मालूम हुईं।

    उस को रीटा कार्लाइल से इश्क़ था। और वो समझता था कि दुनिया में और कोई लड़की के उस के हुस्न-ओ-जमाल का मुक़ाबला नहीं कर सकती। रीटा कार्लाइल जैसा कि आम क्रिस्चियन लड़कियों का दस्तूर है। जिस रास्ता पर थी चली जा रही थी। लेकिन बाबू राव की वजह से उस का भाव बढ़ गया था।

    मुझे यक़ीन है अगर रीटा उर्दू बोल सकती तो वो उसे चंद दिनों में फ़िल्मी आसमान पर पहुंचा देता। उस को अपने क़लम और उस के ज़ोर पर बहुत नाज़ है वो समझता है कि मैं अगर लकड़ी का एक टुकड़ा ले लूं और कहना शुरू कर दूँ कि नृत्य सम्राट है तो यक़ीनन वो चूब-ए-बे-हरकत नृत्य सम्राट बन जाएगी। और लोग इस पर ईमान लाएँगे।

    पदमा देवी गुमनामी के गोशे में पड़ी थी मगर जब उस के आग़ोश में आई तो उसने उसे कलर क्वीन यानी रंगों की मलिका बना दिया। इन दिनों फ़िल्म इंडिया के हर शुमारे में उस के दर्जनों फ़ोटो होते थे। जिनके नीचे वो बड़े चुस्त फ़िक़रे और जुमले लिखता था।

    बाबू राव ख़ुद-साख़्ता आदमी है। जो कुछ भी वो उस वक़्त था और जो कुछ वो उस वक़्त है उस के बनाने में किसी का हाथ नहीं। जवानी ही में उस की अपने बाप से किसी बात पर अन-बन हो गई थी। चुनांचे दोनों के ताल्लुक़ात मुनक़तअ हो गए। बाबू राव से मैं ने जब भी बुड्ढे पटेल के बारे में सुना। यही सुना कि वो साला पक्का हरामी है।

    मालूम नहीं उन दोनों में से हरामी कौन है अगर बुढ्ढा पटेल हरामी है। (बाबू राव के माअनों में) तो ख़ुद बाबू राव भी इस बुड्ढे से हरामी-पन में जहां तक जूतों का ताल्लुक़ है। कई जूते आगे है। अपने और अपने बाप के मिला कर।

    बाबू राव के क़लम में जिस नोकीले तंज़ का मैंने ज़िक्र किया है, अगर इस सिलसिले के अस्बाब तलाश किए जाएं तो उस की अवाइल की ज़िंदगी में मिल सकते हैं। वो गज़नी का महमूद बन कर क्यों बुतशिकनी करना चाहता है। इसी लिए कि बचपन में उस के वालिद ने उस की फ़ित्रत तोड़ने और अपने क़ालिब में ढालने की कोशिश की। उस की शादी की। मगर उस की मर्ज़ी के ख़िलाफ़... दूसरी शादी, उसने ख़ुद की। मगर इस मर्तबा वो ख़ुद धोका खा गया और चिड़ गया। अपने आपसे... हर एक से!

    बाबू राव के किरदार के शह-नशीनों में कई बुत औंधे और शिकस्ता पड़े हैं। कई बुड्ढे हरामी हैं। सैंकड़ों बाज़ारी टखाइयां हैं। लेकिन इन बुतों को तोड़ फोड़ कर उसे वो लज़्ज़त हासिल नहीं हुई जो सोमनाथ का मंदिर ढा कर गज़नी के महमूद को हुई थी।

    वो ऊंचे स्थान पर किसी को बैठे हुए नहीं देख सकता, लेकिन जो ज़मीन पर गिरा होगा, उस को उठाने के लिए वो कई कोस चल के आएगा। उस को ऊंचा करने के लिए वो एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देगा और जब वो उफ़्तादा शख़्स उस की मदद से और अपनी मेहनत से बुलंद मक़ाम हासिल करने में कामयाब हो जाएगा। तो वो उस को गिराने की कोशिश करेगा।

    बाबू राव मजमूआ-ए-अज़दाद है।

    एक ज़माना था कि शांता राम उस के नज़्दीक दुनिया का सबसे बड़ा फ़िल्म डायरेक्टर था। एक वो ज़माना आया कि उसने उसी शांता राम के फिल्मों में बल्कि उस के किरदार में भी कीड़े डालने शुरू कर दिए। कारदार के वो सख़्त ख़िलाफ़ था। लेकिन बाद में बाबू राव को उस की हर अदा पसंद आने लगी। बटवारा हुआ तो वो फिर उस के ख़िलाफ़ हो गया उस का स्टूडियो और उस की जायदाद ज़ब्त कराने के लिए उसने एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। लेकिन ग़रीब की क़िस्मत अच्छी थी कि बाल बाल बच गया।

    बीच में एक ज़माना आया कि उस ने ब-बानग-ए-दहल एलान कर दिया कि फ़िल्म साज़ी सिर्फ़ मियां भाई (मुसलमान) जानते हैं। जो रख-रखाव, जो सलीक़ा और क़रीना मुसलमान फ़िल्म डायरेक्टरों को वदीअत हुआ है। वो किसी हिंदू फ़िल्म साज़ के हिस्से में नहीं सकता। मैं वो दिन भी जानता हूँ जब पृथ्वी राज को वो एक हक़ीर कीड़ा समझता था और वो दिन भी याद हैं। जब किशवर साहू उसे बहुत खुलता था।

    बाबू राव पर दौरे पड़ते हैं। नफ़्सियाती तौर पर उस का दिमाग़ बिलकुल दुरुस्त नहीं। वो एक बहकी हुई भटकी हुई ताक़त है... एक अंधी ताक़त जो कभी इधर अपना सर फोड़ती कभी उधर... वो एक ऐसा आर्टिस्ट है जो अपने ज़अम में गुमराह हो गया है।

    मैं जब कारवां में था तो फ़िल्म इंडिया में मेरी ज़हानत-ओ-ज़कावत के चर्चे आम होते थे। वहां से निकला तो मैं ये मंटो कौन है... जाने कौन बला है हो गया। लेकिन थोड़े ही अर्से के बाद जब मेरा फ़िल्म आठ दिन पेश हुआ तो उसने उस के रिव्यू में अपनी टोपी उतार कर मुझे सलाम किया और कहा कि मंटो हमारे मुल्क का मुनफ़रिद ज़हीन अफ़साना-निगार है।

    जब बाबू-राव प्रभात फ़िल्म कंपनी से मुंसलिक था तो शांता आपटे हिन्दुस्तान की ख़ूबसूरत-तरीन फ़िल्म ऐक्ट्रस थी। वहां से अलाहदा हुआ तो वो एक दम बद-सूरत हो गई। उस के ख़िलाफ़ उसने काफ़ी ज़हर फ़िल्म इंडिया में उगला। मगर वो भी मरहटे की बच्ची है। एक रोज़ सवारी का लिबास पहने बाबू राव के दफ़्तर में घुस गई। और सड़ाप सड़ाप छः सॉट हंटर उस के जड़ दिए।

    सुना था कि ऊंट की कोई कल सीधी नहीं होती थी। ऊंट के बाद दर्जा बाबू राव पटेल का आता है। उस की भी कोई कल सीधी नहीं... अरसा हुआ बंबई की अंग्रेज़ी सहाफ़त के बावा मसटरबी। जी हारनी मैन (मरहूम) ने बोंम्बे सीटी नल के ख़ास कालमों में चंद फ़िक़रे बाबू राव पर चुस्त कर दिए।

    बाबू राव को बड़ा ताव आया उस ने झट हतक-ए-इज़्ज़त का मुक़द्दमा दायर कर दिया। उसी बरस का गर्ग-ए-जहांदीदा हारनी मैन बहुत हंसा उसने एक दोस्त के ज़रिये से बाबू राव को ये पैग़ाम पहुँचवाया कि देखो अगर तुम चाहते हो कि मैं लड़ूं तो मैं तैयार हूँ। लेकिन अगर तुम अपनी ख़ैरियत चाहते हो तो दो हज़ार की रक़म दाहिने हाथ से भिजवा दो ताकि मैं ख़ामोश रहूं।

    बाबू राव को और ताव आया, पर जब उसने ठंडे दिल से ग़ौर किया और बुड्ढे हारनी मैन के कारनामों पर नज़र डाली तो दो हज़ार रुपये उस की नज़्र कर दिए।

    वो बेवक़ूफ़ है... प्रले दर्जे का अहमक़ है, और उस के दिल में इन्सानियत की रमक़ मौजूद है। वो निरा खरा हैवान नहीं। ग़रीबों का हमदर्द है। मुझे अच्छी तरह याद है, एक मर्तबा उस ने एक बात पर तूफ़ान बरपा कर दिया था।

    बंबई में जो ऊंची इमारतें हैं उनमें लिफ़्ट लगी है। सीढ़ीयां भी होती हैं। सबको ये लिफ्टें इस्तेमाल करने की इजाज़त है। लेकिन ग़रीब डाकियों को नहीं। अगर सिर्फ़ पांचवीं मंज़िल के लिए एक ख़त हो तो उसे पूरा क़ुतुब साहब चढ़ना और उतरना पड़ेगा। बाबू राव ने बहुत तूफ़ान मचाया और इस ख़िलाफ़-ए-इन्सानियत हुक्म के ख़िलाफ़ बहुत देर तक सदा-ए-एहतिजाज बुलंद की और आख़िर उसे मंसूख़ करा के रहा।

    उसने हिन्दुस्तानी सनअत-ए-फ़िल्म साज़ी की सतह बुलंद करने में काबिल-ए-सताइश ख़िदमात सर-अंजाम दी हैं। ग़ैर मुल्की फ़िल्म साज़ों से जो हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तानी रिवायात और ख़ुद हिंदुस्तानियों का मज़हका उड़ाया करते थे। इस का उस ने तुर्की बह तुर्की जवाब दिया। यूरोप का दौरा किया और उन लोगों को उनकी हिमाक़तों से आगाह किया।

    वो कई बच्चों का बाप है। दर्जनों तो नहीं होंगे, लेकिन एक दर्जन के क़रीब ज़रूर होंगे। क्यों कि एक दिन जब मैं उस के घर गया तो उसने अपने तमाम बच्चों को “फ़ाल इन” का हुक्म दिया। बाबू राव उन सब का शफ़ीक़ बाप है।

    मगर...

    बस इसी मगर के बाद वो बाबू राव शुरू होता है जिसका आग़ाज़ और उस के बाद का कुछ हिस्सा मैंने देखा था, तामीर-ओ-तासीस, अज़मत-ओ-बुज़ुर्गी के ख़िलाफ़ जो हल्की सी को उस की तहरीरों में झलकियाँ लेती थी और आहिस्ता-आहिस्ता नुमायां हो रही थी। अब अपने पूरे भयानक लिबास में जलवा-गर है।

    महमूद गज़नी की बुत-शिकनी का वो हल्का सा परतौ, जो उस के दिल-ओ-दिमाग़ मौजूद था। अब निहायत भोंडी शक्ल में हमारे सामने मौजूद है।

    दरमियान में उसने जवाहर लाल नेहरु की हर दिल अज़ीज़ी और अज़मत से चढ़कर उस को गांधी का ले पालक और सारी क़ौम के सर का दर्द कहा था यही चीज़ अब बिगड़ कर पाकिस्तान दुश्मन बन गई है। इस लिए कि पाकिस्तान हक़ीक़त बन गया है और दुनिया के नक़्शे पर अपने लिए एक अहम जगह पैदा कर रहा है। ये उस की कज-रौ तबीयत के ख़िलाफ़ है।

    फ़िल्म इंडिया में जैसा कि नाम से ज़ाहिर है। सिर्फ़ फ़िल्म से मुताल्लिक़ा मज़ामीन होने चाहिएं। और हुआ करते थे लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता उस में सियासियात ने भी सर निकालना शुरू कर दिया। और अब तो ये हालत है कि सियासियात, फ़िल्मियात और जिनसियात कुछ इस तरह आपस में गड-मड हो गए हैं कि बिलकुल बाबू राव की मौजूदा परोड़टड ज़हनियत का नक़्शा पेश करते हैं। एक ही जगह पर आपको पाकिस्तान, मोरारजी डेसाई, औरतों के अय्याम और वीरा के पपीता नुमा चेहरे का ज़िक्र मिलेगा।

    लियाक़त का मक्का होगा, साथ ही बाबूराव की तनूमंदी और मर्दुमी, उस के साथ अचार्य किशवर साहू और आख़िर में वो गांधी टोपी को अपनी फूँकों से उड़ाने की कोशिश कर रहा होगा।

    सियासियात में क़दम रखकर वो समझता है कि ये भी कोई रीटा है, सुशीला है, पदमा है जिसे वो डुगडुगी बजा कर बाँस पर चढ़ा देगा और ख़ुद तमाशा देखेगा, हालाँकि वो अंदुरूनी तौर पर जानता है कि फ़िल्म साज़ी के मैदान में बहुत बुरी तरह नाकाम रह चुका है और इस मैदान में उस से भी ज़्यादा नाकाम रहेगा... मगर छेड़-छाड़ उस की सरिश्त में दाख़िल है।

    मुझसे आप पूछिए तो बाबू राव को हिन्दुस्तान से ग़रज़ है पाकिस्तान से। वो दर-अस्ल अज़मत और बुज़ुर्गी का दुश्मन है। वर्ना वो अपने इस बुंगे में ख़ुश है जो उसने एक बड़ी रक़म दे कर उम्र पार्क में ख़रीदा है। अपनी सेक्रेटरी सुशीला रानी से ख़ुश है जिसको आसमान पर चिढ़ाने के लिए उसने फ़िल्म इंडिया दो बरस तक वक़्फ़ किए रखा। उस को एक फ़िल्म में भी पेश किया। इस ख़याल से कि दूसरे का हाथ रानी को ना लगे। उसने ये फ़िल्म ख़ुद डाइरेक्ट किया... लेकिन नतीजा सिफ़र उस की बाबू राव को कोई परवाह नहीं। उस के पास रानी है। उस के पास रेस के घोड़े हैं। उस के पास बेहतरीन दफ़्तर है। उस के पेट में सरतान है, लेकिन उस की तिजोरी में काफ़ी दौलत है। वो उड़ कर अमरीका जा सकता है और उस का इलाज करा सकता है... लेकिन उस को एक बहुत बड़ा दुख है।

    मैं आपको बताता हूँ... उस को ये दुख है कि मुसलमान क्यूं इतने बे-वफ़ा होते हैं। मैं सच कहता हूँ उस के कई मुसलमान दोस्तों ने उस से बेवफ़ाई की है। हिंदू दोस्तों ने भी की है लेकिन मुसलमान उसे ज़्यादा अज़ीज़ थे। वो उनकी ख़ूब पसंद करता था। उनका रहन सहन पसंद करता था। उस को उनकी ख़ूबसूरती पसंद थी। सबसे ज़्यादा उस को उनके खाने पसंद थे।

    बाबू राव अक़ाइद के लिहाज़ से बहुत रौशन ख़याल है। उस की एक लड़की, प्रेस के एक मुसलमान मुलाज़िम के इश्क़ में गिरफ़्तार हो गई। मुसलमान क़रीब क़रीब अन-पढ़ था। और बाबू राव की लड़की ज़ाहिर है कि तालीम-याफ़ता थी... लेकिन इश्क़ ऐसी चीज़ें कब देखता है दोनों भाग गए।

    बाबू राव इन दोनों को पकड़ कर ले आया। लड़की को लानत मलामत की और चाहा कि ये क़िस्सा ख़त्म हो जाए, लेकिन मानी... बाबू राव ने उस से पूछा। तो क्या चाहती है?

    लड़की ने जवाब दिया। मैं उस से शादी करना चाहती हूँ।

    बाबू राव ने अपनी लड़की की शादी प्रेस में काम करने वाले मुसलमान से कर दी... कुछ अर्से के बाद जब उस से मेरी मुलाक़ात हुई तो वो आँखों में आँसू भर के कहने लगा। ये तुम साला मुसलमान कैसा है... एक हमसे छोकरी लेता है... फिर कहता है खाने के लिए भी दो।

    इस पस--मंज़र में भी बाबू राव की मौजूदा ज़हरीली तहरीरों को देखने की ज़रूरत है।

    लेकिन ये कितनी बड़ी हिमाक़त है कि वो एक फ़र्द का या दो तीन अफ़राद का बदला एक पूरी क़ौम से लेना चाहता है... एक मज़हब से लेना चाहता है। बाबू राव तारीख़ का तालिब-ए-इल्म है, क्या इस पर ये हक़ीक़त आशकार नहीं कि ये क़ौम और मज़हब सराब नहीं, एक ठोस हक़ीक़त है।!

    इस्लाम और वादी-ए-इस्लाम के ख़िलाफ़ लोग दरीदा दोहनी करते रहे हैं लेकिन उस से कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ा। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भी लोग एक अर्से तक ज़हर उगलते रहेंगे। उस से क्या होता है... मुझे अफ़सोस तो इस बात का है कि हालात ने कितना शानदार क़लम ग़लाज़त और गंदगी में डुबो दिया... कोई आर्टिस्ट किसी की मज़हबी दिल-आज़ारी का बाइस नहीं हो सकता। वो आर्टिस्ट था, लेकिन अफ़सोस कि आम आदमी बन गया।

    ख़ुदा की क़सम फ़िल्म इंडिया के चंद पिछले शुमारे देखे, मुझे घिन आने लगी... बाबू राव और ऐसी गिरावट, ऐसा मालूम होता है कि वो आर्टिस्ट जो उस में था, या तो सरतान बन के उस के पेट में चला गया है, या उस की दो बीवियों की बद्द-दुआओं। रीटा कार्लाइल के बुरीदा गेसुओं... और पदमा देवी और सूशीला रानी के बिस्तरों में दफ़न हो गया है।

    स्रोत:

    गंजे फ़रिशते (Pg. 279)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1983

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