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किश्त-ए-ज़ाफ़रान

सआदत हसन मंटो

किश्त-ए-ज़ाफ़रान

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    “लाइट्स ऑन... फ़ैन ऑफ़... कैमरा रेडी... शॉर्ट मिस्टर जगताप।!”

    “स्टारटड”

    “सीन थ्री टी फ़ौर... टेक टेन।”

    “नीला देवी आप कुछ फ़िक्र ना कीजिए। मैं ने भी पेशावर का पेशाब है!”

    “कट कट”

    लाइट्स ऑन हुईं। वी एच. डेसाई ने राइफ़ल एक तरफ़ रखते हुए बड़े इत्मिनान से अशोक से पूछा। “ओके मिस्टर गांगुली?”

    अशोक ने जो जल भुन कर राख होने के क़रीब था क़हर-आलूद निगाहों से ख़ला में देखा और ज़हर के चंद बड़े बड़े घूँट जल्दी जल्दी पी कर चेहरे पर मस्नूई ख़ुशी का इज़हार करते हुए डेसाई से कहा। “वंडरफुल... फिर उस ने मानी-ख़ेज़ नज़रों से मेरी तरफ़ देखा। “क्यूं मंटो?”

    मैंने डेसाई को गले लगा लिया। “वंडरफुल”

    हमारे चारों तरफ़ लोगों अपनी अपनी हंसी का बहुत बुरी तरह गला घोंट रहे थे। डेसाई बहुत ख़ुश था। चूँ कि उस ने बहुत देर के बाद मेरे मुँह से अपनी इस क़दर पुरजोश तारीफ़ सुनी थी। दर-अस्ल अशोक ने कुछ अरसा पहले मुझे मना कर दिया था कि मैं अपनी झुंझलाहट का इज़हार हरगिज़ हरगिज़ करूँ। क्यों कि उसे अंदेशा था कि डेसाई बौखला जाएगा और सारा दिन ग़ारत कर देगा।

    जब चंद लमहात गुज़र गए तो डेसाई ने मुकालिमा आमोज़ डिकशिट से कहा। “डिकशिट साहब नेक्सेट डाइलाग?”

    ये सुन कर अशोक जो कि आठ दिन नामी फ़िल्म डायरेक्ट कर रहा था, मुझसे मुख़ातब हुआ। “मंटो, मेरा ख़याल है पहला डायलॉग एक दफ़ा और ले लें।”

    मैंने डेसाई की तरफ़ देखा। “क्यूं डेसाई साहब...? मेरा ख़याल है इस दफ़ा और भी वंडरफुल हो जाएगा।

    डेसाई ने गुजराती अंदाज़ में अपना सर हिलाया। “हो... तो ले लो अभी। गर्मा गर्म मुआमला है।”

    दत्ता राम चिल्लाया। “लाइट्स ऑन।”

    लाइट्स रौशन हुईं। डेसाई ने राइफ़ल संभाली।

    डिकशिट झट से डेसाई की तरफ़ लपका और मुकालिमों की किताब खोल कर कहने लगा। “मिस्टर डेसाई। ज़रा वो डायलॉग याद कर लीजिए।”

    डेसाई ने पूछा। “कौन सा डाइलाग?”

    डिकशिट ने कहा। “वही जो आपने इतना वंडरफुल बोला था। ज़रा उसे दोहरा दीजिए।”

    डेसाई ने राइफ़ल कंधे पर जमाते हुए बड़े संगीन एतिमाद से कहा “मुझे याद है।”

    डिकशिट ने मुझे इशारा किया। “मंटो साहब ज़रा आप सुन लीजिए।”

    मैंने डेसाई के कांधे पर हाथ रखा और बड़े ग़ैर-संजीदा लहजे में कहा “हाँ, तो वो क्या है डेसाई साहब... नीला देवी, आप कोई फ़िक्र कीजिए। मैंने भी पेशावर का पानी पिया है।”

    डेसाई ने अपने सर पर पेशावरी लुंगी का ज़ाविया दुरुस्त किया, और वीरा (फिल्म में नीला देवी) से मुख़ातब हो कर कहा। “नीला देवी, आप कोई पेशावर कीजिए मैंने भी आपका पानी पिया है।”

    वीरा इस क़दर बे-तहाशा हंसी कि डेसाई डर गया। “क्या हुआ मिस वीरा?”

    वीरा साड़ी के आँचल में हंसी दबाती सीट से बाहर चली गई। डेसाई ने तशवीश ज़ाहिर करते हुए डिकशिट से पूछा। “क्या बात थी?”

    डिकशिट ने अपना हंसी से उबलता हुआ मुंह दूसरी तरफ़ कर लिया। मैंने डेसाई की परेशानी दूर करने के लिए कहा। “नथिंग सीरियस... खांसी गई।”

    डेसाई हंसा। “ओह फिर वो मुस्तइद हो कर अपने मुकालमे की तरफ़ मुतवज्जा हुआ। नीला देवी आप कोई खांसी कीजिए। मैंने भी देवी का...”

    अशोक अपने सर को मुक्के मारने लगा। डेसाई ने देखा तो मुतफ़क्किर हो कर इस से पूछा। “क्या बात है मिस्टर गंगोली।”

    गंगोली ने एक ज़ोर का मुक्का अपने सर पर मारा। “कुछ नहीं। सर में दर्द था... तो हो जाये टेक?”

    डेसाई ने अपना कद्दू सा सर हिलाया। “हौ!”

    गंगोली ने मुर्दा आवाज़ में कहा। “कैमरा रेडी... रेडी मिस्टर जगताप?”

    भोंपू से जगताप की मिनमिनाहट सुनाई दी... “रेडी!”

    गंगोली ने और ज़्यादा मुर्दा आवाज़ में कहा...

    “स्टार्ट।”

    कैमरा स्टार्ट हुआ। क्लिप स्टिक हुई।

    सीन थर्टी फ़ोर... टेक इलैवन!

    डेसाई ने राइफ़ल लहराई और वीरा से कहना शुरू किया। “नीला पानी। आप कोई देवी कीजिए मैंने भी पेशावर का...”

    अशोक दीवाना-वार चिल्लाया। “कट कट।”

    डेसाई ने राइफ़ल फ़र्श पर रखी। और घबरा कर अशोक से पूछा। “एनी मिस्टेक मिस्टर गांगुली?”

    अशोक ने डेसाई की तरफ़ क़ातिलाना निगाहों से देखा। “मगर फ़ौरन उनमें भेड़ों की सी नर्मी और मासूमियत पैदा करते हुए कहा। “कोई नहीं... बहुत अच्छा था... बहुत ही अच्छा।” फिर वो मुझसे मुख़ातब हुआ। “आओ मंटो, ज़रा बाहर चलें!”

    सीट से बाहर निकल कर अशोक क़रीब क़रीब रो दिया। “मंटो, बताओ, अब क्या किया जाये सुब्ह से ये वक़्त हो गया है। पेशावर का पानी उस के मुंह पर चढ़ता ही नहीं... मेरा ख़याल से लंच के लिए ब्रेक कर दें।”

    बड़ा माक़ूल ख़याल था क्यूं कि डेसाई से ये फ़ौरी तवक़्क़ो बिलकुल फ़ुज़ूल थी कि वो सही मुकालिमा बोल सकेगा। एक दफ़ा अगर उस की ज़बान पर कोई चीज़ जम जाये तो बड़ी मुश्किल से हटती थी। अस्ल में उस का हाफ़िज़ा बिलकुल सिफ़र था। उसे छोटे से छोटा मुकालमा भी याद नहीं रहता था। अगर सीट पर वो पहली बार कोई मुकालमा सेहत के साथ अदा कर जाता तो उसे महज़ इत्तिफ़ाक़ समझा जाता था। मगर लुत्फ़ ये है कि ग़लत अदायगी के बावजूद डेसाई को क़तअन इस बात का एहसास नहीं होता था कि उसने मुकालमे को किस हद तक... किस रुला देने वाली हद तक मस्ख़ किया है।

    मुकालमे की टांग तोड़ कर उस को मुकम्मल तौर पर अपाहिज कर के वो आम तौर पर हाज़िरीन की तरफ़ दाद तलब निगाहों से देखा करता था। इस की एक दो लड़खड़ाहटें यक़ीनन तफ़रीह का मूजिब होती थीं। मगर जब वो हद से तजावुज़ कर जाता तो सब के दिल में ये ख़्वाहिश पैदा होती कि उस के सर के टुकड़े टुकड़े कर दिए जाएं।

    मैं फ़िल्मिस्तान में तीन बरस रहा। इस दौरान में डेसाई ने चार फ़िल्मों में हिस्सा लिया मुझे याद नहीं कि उसने एक मर्तबा भी पहले ही मरहले में अपना मुकालिमा सेहत से अदा क्या हो, अगर हिसाब लगाया जाये तो आंजहानी ने अपनी फ़िल्मी ज़िंदगी में लाखों फ़ुट फ़िल्म ज़ाए किया होगा।

    अशोक ने मुझे बताया कि डेसाई की रीटेक्स का रिकार्ड पछत्तर है। यानी बाम्बे टॉकीज़ में उसने एक-बार एक मुक्कालमे को चौहत्तर मर्तबा ग़लत अदा किया। ये सिर्फ़ जर्मन डायरेक्टर फ़रानिज़ा सेंटन ही का हौसला था कि वो बहुत देर तक ज़ब्त किए रहा। आख़िर उस का पैमाना लबरेज़ हो गया। सर पीट कर उसने डेसाई से कहा। मिस्टर डेसाई मुसीबत ये है कि लोग तुम्हें पसंद करते हैं। तुम्हें पर्दे पर देखते ही हंसना शुरू कर देते हैं। वर्ना आज मैंने तुम्हें ज़रूर उठा कर बाहर फेंक दिया होता।

    और फ़रानिज़ा सेंटन की इस साफ़-गोई का नतीजा ये हुआ कि चौहत्तर रीटेक हुए और स्टूडियो के हर कारकुन को बारी बारी डेसाई को दम दिलासा देने का फ़र्ज़ अदा करना पड़ा, लेकिन कोई हीला कारगर नहीं होता था। वो एक-बार उखड़ जाये तो कोई दवा या दुआ बा-असर साबित नहीं होती। ऐसे वक़्तों में चुनानचे यही मुनासिब ख़याल किया जाता था कि नतीजा ख़ुदा के हाथ सौंप कर धड़ा धड़ फ़िल्म ज़ाएअ किया जाये। जब उस की और डेसाई की मर्ज़ी ब-यक-वक़्त शामिल हो जाये तो सजदा शुक्राना अदा करे।

    अशोक ने लंच के लिए ब्रेक कर दिया। जैसा कि आम दस्तूर था। किसी ने डेसाई से मुकालमे के बारे में गुफ़्तगू की। ताकि जो कुछ हो चुका है। उस की याद ताज़ा हो। अशोक इधर उधर की गप्पें सुनाता रहा। डेसाई ने हस्ब-ए-मालूम अपनी तरफ़ से मज़ाह अंगेज़-बातें कीं। जिनमें ज़रा बराबर मज़ाह नहीं था, लेकिन सब हंसते रहे। लंच ख़त्म हुआ, शूटिंग फिर शुरू हुई। अशोक ने उस से पूछा। “क्यूं डेसाई साहिब, आपको डायलॉग याद है?”

    डेसाई ने बड़े वसूक़ के साथ कहा... “जय हो!”

    लाइट्स ऑन हुईं। सेन थर्टी फ़ॉर, टेक टोलो शुरू हुआ। डेसाई ने राइफ़ल लहर कर वीरा से कहा। “नीला देवी... आप आप। और एक दम रुक गया। आई एम सॉरी।”

    अशोक का दिल बैठ गया। लेकिन उसने डेसाई का दिल रखने के लिए कहा। “कोई बात नहीं... जल्दी कीजिए।”

    सेन थर्टी फ़ॉर, टेक थर्टीन शुरू हुआ। मगर डेसाई ने पेशावर से पेशाब को अलग किया। जब चंद और कोशिशें भी बार-आवर हुईं, तो मैंने अलग ले जा कर अशोक को मश्वरा दिया “दादा मनी, देखो यूं करो... जब डेसाई ये मुकालिमा अदा करता है तो वो कैमरे की तरफ़ पीठ करते हुए उस का बक़ाया हिस्सा अदा करे। यानी पेशावर का पेशाब पिया है, कैमरे के सामने मुंह करके बोले।

    अशोक समझ गया क्यूं कि इस मुश्किल से निकलने की एक सिर्फ़ यही तरकीब थी। क्यूं कि हम बड़ी आसानी से ये मुकालिमा बाद में डब कर सकते थे। अगर वो सारा मुकालिमा कैमरे के सामने मुंह करके अदा करता तो उस के होंटों की जुंबिश सही मकालिमे के साथ चस्पाँ हो सकती।

    जब डेसाई को ये तरकीब समझाई गई तो उसे बहुत ठेस पहुंची। उसने हम सबको यक़ीन दिलाने की हर मुम्किन कोशिश की वो अब ग़लती नहीं करेगा। मगर पानी सर से गुज़र चुका था... और वो भी पेशावर का, इस लिए उस की मिन्नत समाजत बिलकुल सुनी गई, बल्कि उस से कह दिया गया कि वो जो उस के दिल में आए बोल दे।

    डेसाई बहुत बद-दिल हुआ, लेकिन उसने मुझसे कहा। “कोई बात नहीं मंटो। मैं मुँह दूसरी तरफ़ मोड़ लूंगा। लेकिन आप देखिएगा कि मैं डायलॉग बिलकुल कोर कट बोलूँगा।”

    सेन थर्टी फ़ॉर... टेक फ़ोर्टीन की आवाज़ आई। डेसाई ने बड़े अज़्म के साथ राइफ़ल हवा में लहराई और वीरा से मुख़ातब हो कर कहा। “नीला देवी आप कोई फ़िक्र कीजिए। ये कह वो मुड़ा। मैंने भी पेशावर का पेशाब पिया है।”

    सीन कट हुआ। डेसाई ने फ़तह मंदाना अंदाज़ में राइफ़ल कंधे पर रखी और अशोक से पूछा। “क्यूं मिस्टर गांगुली?” अशोक अब बिलकुल संग-दिल बन चुका था। उसने बड़े रूखे अंदाज़ में कहा। “ठीक है ठीक है...” फिर वो कैमरा मैन हरदीप से मुख़ातब हुआ। “चलो नेक्स्ट शूट!”

    शूटिंग ख़त्म हुई। मुझे अपने एक दोस्त के साथ चर्चगेट जाना था इस लिए हम जल्दी जल्दी स्टेशन पहुंचे। गाड़ी खड़ी थी। हम एक डिब्बे में बैठ गए क्या देखते हैं कि डेसाई साहब भी बिराजमान हैं और मुसाफ़िरों को अपने कारनामे सुना रहे हैं... मेरा दोस्त जो उस दिन की शूटिंग देख चुका था। डेसाई के पास बैठ गया। दौरान-ए-गुफ़्तगू में उसने एक बड़ा बेढब सा सवाल किया।

    “सेट पर जो लोग डायलॉग भूल जाते हैं। उस का क्या इलाज किया जाता है।”

    डेसाई ने जवाब दिया। “मालूम नहीं। मैं तो एक दफ़ा भी नहीं भूला।”

    उस का ये जवाब बेहद मासूम था, जैसे वो डायलॉग भूल जाने के मर्ज़ से क़तअन ना-आशना है... मेरा ख़याल है कि ख़ुद उस को इस का कामिल यक़ीन था कि उस से कोई ग़लती सरज़द नहीं होती। और ये दरुस्त था, इस लिए कि ग़लती का एहसास तो सिर्फ़ उसी सूरत पैदा हो सकता है। अगर सेहत के मुताल्लिक़ हल्का सा तसव्वुर इन्सान के दिमाग़ में मौजूद हो। डेसाई मरहूम के दिमाग़ में कोई ऐसा ख़ाना ही नहीं था जो ग़लत और सही में तमीज़ कर सके, वो इस से बिलकुल बेनियाज़ था, मासूमियत की हद तक।

    वो लोग ये समझते हैं कि वो बहुत बड़ा मज़ाह-कार था यकसर ग़लत है। वो जो ये समझते हैं कि वो बहुत बड़ा किरदार कार था। क़तअन ना-दुरुस्त है। ऐसा गुनाह आँ-जहानी से कभी सरज़द नहीं हुआ, लोग अगर उस की हरकात पर हंस हंस के दोहरे होते थे। तो इस का बाइस-ओ-कुदरत की छेड़ख़ानी थी। ख़ुदावंद-ए-ताला ने उस की तख़्लीक़ ही ऐसे आब-ओ-गिल से की थी, जिसमें ज़ाफ़रान गुंधी हो।

    एक दफ़ा रेस कोर्स पर मैंने दूर से उस की तरफ़ इशारा किया और अपनी बीवी से कहा। “वो डेसाई है।... वो!”

    मेरी बीवी ने उस जानिब देखा और बे-इख़्तियार हंसना शुरू कर दिया। मैंने इस से पूछा। “इतनी दूर से देखने पर इस क़दर बे-तहाशा हंसने की वजह क्या है?”

    वो मेरे सवाल का इत्मिनान बख़्श जवाब दे सकी। सिर्फ़ ये कह कर वो और ज़्यादा हंसने लगी। “मालूम नहीं!”

    आंजहानी को रेस का बहुत शौक़ था, अपनी बीवी और लड़की को साथ लाता था। मगर दस रुपये से ज़्यादा कभी नहीं खेलता था। इस के बयान के मुताबिक़ कई जो की उस के बहुत ही क़रीबी थे जो उस को सोला आने खरी टिप देते थे। ये टिप वो अक्सर दूसरों को देता था। इस दरख़्वास्त के साथ कि वो उसे अपने तक रखें और किसी और को बताएं। ख़ुद वो किसी और की दी हुई टिप पर खेलता था।

    रेस कोर्स पर जब मैंने उस को अपनी बीवी से मुतआरिफ़ कराया तो उसने एक शेर यानी यक़ीनी टिप दी। जब वो आई तो उसने मेरी बीवी से पर ताज्जुब लहजे में कहा। “हद हो गई है... ये टिप तो आना ही मांगती थी। उसने ख़ुद एक दूसरे नंबर का घोड़ा खेला था जो प्लेसेज़ गया था। इस पर इस ने किसी क़िस्म के ताज्जुब का इज़हार नहीं किया था।”

    डेसाई आँ-जहानी की अवाइली ज़िंदगी के मुताल्लिक़ लोगों की मालूमात बहुत महदूद हैं। ख़ुद मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि वो गुजरात के एक मुतवस्सित घराने का फ़र्द था। बी. ए. करने के बाद उसने एल, एल, बी. किया। छः सात बरस तक बाम्बे की छोटी अदालतों की ख़ाक छानता रहा। उस की प्रैक्टिस मामूली थी। लेकिन उस का घर बार चलाने के लिए काफ़ी थी। लेकिन जब वो दिमाग़ी आरिज़े में मुबतला हुआ तो उस की माली हालत बहुत पतली हो गई। एक अर्से तक नीम पागल रहा। ईलाज मुआलिजे से ये आरिज़ा दूर तो हो गया। मगर डाक्टरों ने दिमाग़ी काम करने से मना कर दिया। क्यूं कि ख़तरा था कि मर्ज़ फिर ऊद कर आए... अब डेसाई ग़रीब के लिए बड़ी मुश्किल थी कि वो करे तो क्या करे। वकालत ज़ाहिर है कि यकसर दिमाग़ी काम था। इस लिए उधर रुजूअ करने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। कुछ अर्से तक वो इधर उधर हाथ पांव मारता रहा। तिजारत से उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी। हालाँकि उस की रगों में ठेठ गुजराती ख़ून था।

    जब हालात बहुत नाज़ुक हो गए तो वो सागर मोदी टोन के चमन लाल डेसाई से मिला और ख़्वाहिश ज़ाहिर की उसे स्टूडियो में काम मिल जाये। अस्ल में उस का मक़सद ये था कि उसे ऐक्टिंग का मौक़ा दिया जाये। चमन लाल गुजराती और डेसाई था। उस ने वी.एच. को मुलाज़िम रख लिया। उस के कहने पर चंद डायरेक्टरों ने आज़माइश के तौर पर मुख़्तलिफ़ फ़िल्मों में थोड़ा थोड़ा काम दिया और इस नतीजे पर पहुंचे कि उस को फिर आज़माना बहुत बड़ी ख़ता है। चुनांचे वो कुछ अर्से के लिए बेकार सागर मोदी टोन में पड़ा रोटियाँ तोड़ता रहा।

    इस दौरान में मिस्टर हिमानसूराय बाम्बे टॉकीज़ क़ायम कर चुके थे। जिसके मुतअद्दिद फ़िल्म कामियाब भी हो चुके थे। इस इदारे के मुताल्लिक़ मशहूर था कि तालीम-याफ़ता लोगों की क़दर करता है। ये दुरुस्त भी था। चुनांचे डेसाई क़िस्मत आज़माई के लिए वहां पहुंचा। दो तीन चक्कर लगाने और मुख़्तलिफ़ सिफ़ारशी ख़ुतूत हासिल करने के बाद मिस्टर हिमानसूराय से मिला... हिमानसूराय ने इस की शक्ल-ओ-सूरत और उस की तमाम कमज़ोरियों को पेश नज़र रखते हुए एक ख़ास किरदार वज़अ किया और हिन्दुस्तानी स्क्रीन को एक ऐसा ऐक्टर बख़्शा जो ऐक्टिंग से बिलकुल ना-आशना था।

    पहले ही फ़िल्म में वी.एच. डेसाई फ़िल्म बीनों की तवज्जो का मर्कज़ बन गया। बाम्बे टॉकीज़ के अमले को शूटिंग के दौरान में जो मुश्किलात पेश आईं। वो बयान से बाहर हैं। सबकी कुव्वत-ए-बर्दाश्त जवाब दे दे जाती थी। मगर वो अपने तजुर्बे में डटे रहे आख़िर कामियाब रहे। इस फ़िल्म के बाद डेसाई बाम्बे टॉकीज़ के फ़िल्मों का जुज़्व-ए-लायन फ़ुल बन गया, उस के बग़ैर बाम्बे टॉकीज़ का फ़िल्म ग़ैर मुकम्मल और रूखा फीका समझा जाता था।

    डेसाई अपनी कामियाबी पर ख़ुश था मगर उस को हैरत हरगिज़ नहीं थी। वो समझता था कि उस की कामियाबी उस की ज़हानत-ओ-ज़कावत और अनथक कोशिशों का नतीजा है। मगर ख़ुदा बेहतर जानता है कि इन तमाम चीज़ों का उस की शोहरत और कामियाबी में ज़र्रा बराबर दख़ल नहीं था। ये सिर्फ़ क़ुदरत की सितम ज़रीफ़ी थी कि वो फिल्मों का सबसे बड़ा ज़रीफ़ बन गया था।

    मेरी मौजूदगी में उस ने फ़िल्मिस्तान के तीन फिल्मों में हिस्सा लिया। उन तीन फ़िल्मों का नाम अलल-तर्बीत ये है। “चल चल रे नौजवान”, “शिकारी” और “आट्ठावन।” हर फ़िल्म की तैयारी के दौरान में हम उस की तरफ़ से मुतअद्दिद बार मायूस हो गए। मगर अशोक और मुकर्जी चूँकि मुझे बता चुके थे कि उस से काम लेने के लिए पता क़तई तौर पर मार देना पड़ता है। इस लिए मुझे अपनी जिल्द घबरा जाने वाली तबीयत को क़ाबू में रखना पड़ा। वर्ना बहुत मुम्किन था कि मैं “चल चल रे नौजवान” की शूटिंग ही के दौरान में दूसरे जहान को चल पड़ता। वैसे कभी कभी ग़ुस्से के आलम में नया ख़्वाहिश बड़ी शिद्दत से पैदा होती थी कि कैमरा उठा कर उस के सर पर दे मारा जाये। माइक्रोफ़ोन का पूरा बूम उस के हलक़ में खोंस दिया जाये, और सारे बल्ब उतार कर उस की लाश पर ढेर कर दिए जाएं। मगर जब इस क़सद से उस की तरफ़ देखते तो ये सफ़्फ़ाकाना अज़्म हंसी में तब्दील हो जाता।

    मुझे मालूम नहीं इज़राईल अलैहिस्सलाम ने उस की जान क्यूँ-कर ली होगी। क्यूं कि उस को देखते ही हंसी के मारे उनके पेट में बल पड़ पड़ गए होंगे। मगर सुना है कि फ़रिश्तों के पेट नहीं होता। कुछ भी हो डेसाई की जान लेते हुए वो यक़ीनन एक बहुत ही दिलचस्प तजुर्बे से दो-चार हुए होंगे।

    जान लेने का ज़िक्र आया तो मुझे शिकारी का आख़िरी सीन याद गया। इस में हमें डेसाई की जान लेना थी... उन्हें बेरहम जापानियों के हाथों ज़ख़्मी हो कर मरना था। और मरते वक़्त अपने होनहार और बहादुर शागिर्द बादल (अशोक) और उस की महबूबा वीरा से मुख़ातब हो कर ये कहना था कि वो इस मौत पर मग़्मूम हों और अपना नेक काम किए जाएं। मुकालिमों की सहत-ए-अदायगी का सवाल हस्ब-ए-मालूम मुश्किल था, मगर अब ये मुसीबत दरपेश थी कि डेसाई को किस अंदाज़ से मारा जाये कि लोग हंसें। मैंने तो अपना फ़ैसला दे दिया था कि उस को अगर सच-मुच भी मार दिया जाये तो लोग हंसेंगे वो कभी यक़ीन ही नहीं करेंगे कि डेसाई मर रहा है या मर चुका है। उनके ज़हन में डेसाई की मौत का तसव्वुर ही नहीं सकता।

    मेरे इख़्तियार में होता तो मैंने यक़ीनन ये आख़िर का सीन हज़्फ़ कर दिया होता। मगर मुश्किल ये थी कि कहानी का बहाव ही कुछ ऐसा था कि अंजाम में उस कैरेक्टर की मौत ज़रूरी थी जो कि उसे सौंपा गया था। कई दिन हम सोचते रहे कि इस मुश्किल का कोई हल मिल जाये मगर नाकाम रहे। अब उस के सिवा और कोई चारा नहीं था कि उसे मरता दिखाया जाये।

    मुकालिमों की सेहत अब सानवी अहमियत रखती थी। जब रीहरसलें की गईं। तो हम सबने नोट किया कि वो निहायत ही मज़हका-ख़ेज तरीक़े पर मरता है। अशोक और वीरा से मुख़ातब होते हुए वो कुछ इस अंदाज़ से अपने दोनों हाथ हिलाता है, जैसे कूक भरा खिलौना, उस की ये हरकत बहुत ही ख़ंदा-ख़ेज़ थी। हमने बहुत कोशिश की कि वो साकित पड़ा रहे और अपने बाज़ुओं को जुंबिश दे। मगर दिमाग़ की तरह उस का जिस्म भी उस के इख़्तियार से बाहर था।

    बड़ी देर के बाद आख़िर अशोक को एक तरकीब सूझी, और वो ये थी कि जब सीन शुरू हो, तो वीरा और वो दोनों उस के हाथ पकड़ लें। ये तरकीब कारगर साबित हुई। सब ने इत्मिनान का सांस लिया। लेकिन जब पर्दे पर ये फ़िल्म पेश हुआ और डेसाई की मौत का ये मंज़र आया तो सारा हाल क़हक़हों से गूंज उठा... हमने फ़ौरन दूसरे शो के लिए उस को क़ैंची से मुख़्तसर कर दिया। मगर तमाशाइयों के रद्द-ए-अमल में कोई तब्दीली वाक़ेअ हुई। आख़िर थक हार कर उस को वैसे का वैसा रहने दिया।

    डेसाई आंजहानी बेहद कंजूस था। किसी दोस्त पर एक दमड़ी भी ख़र्च नहीं करता था। बड़े अर्से के बाद उसने क़िस्तों पर अशोक से उस की पुरानी मोटर ख़रीदी। वो ख़ुद चूँकि ड्राइव करना नहीं जानता था। इस लिए एक मुलाज़िम रखना पड़ा, मगर ये मुलाज़िम हर दसवीं पंद्रहवीं रोज़ बदल जाता था, मैंने एक रोज़ इस की वजह दरियाफ़्त की तो डेसाई गोल कर गया। लेकिन मुझे साऊंड रिकार्ड सेट जगताप ने बताया कि डेसाई साहब एक ड्राइवर रखते हैं। नमूने के तौर पर उस का काम दस बारह रोज़ देखते हैं और फिर उसे कंडम कर के दूसरा रख लेते हैं। ये सिलसिला काफ़ी देर तक जारी रहा, मगर इसी दौरान में उसने ख़ुद मोटर चलाना सीख लिया।

    आं-जहानी को दमे की शिकायत बहुत अर्से से थी। ये मर्ज़ ला-इलाज क़रार दे दिया गया था। किसी के कहने पर उसने हर-रोज़ दवा के तौर पर थोड़ी सी ख़ुश्क भांग खाना शुरू की थी। अब वो उस का आदी बन गया था। शाम को सर्दियों के मौसम में ब्रांडी का आधा पैग भी पीता था। और ख़ूब चहका करता था।

    आठ दिन में एक सीन ऐसा था कि उसे पानी के टब में बैठना था। मौसम ख़ुशगवार था। मगर उस की हद से नाज़ुक तबीयत के लिए नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हद तक सर्द था। हमने उस के पेश-ए-नज़र पानी गर्म करा दिया और साथ ही प्रोडक्शन मैनेजर से कह दिया कि ब्रांडी तैयार रखे, जिन अस्हाब ने ये फ़िल्म देखा है, उनको ये मंज़र ज़रूर याद होगा। जिसमें टीकम लाला लाला (डीसाई) सर नरेंद्र के फ़्लैट के ग़ुस्ल-ख़ाने में टब में बैठता है। सर पर बर्फ़ की थैली है। एक छोटा पंखा चल रहा है और वो शराब के नशे में धुत ये कह रहा है। चारों तरफ़ समुंद्र ही समुंद्र है। ऊपर बर्फ़ का पहाड़ है... वग़ैरा वग़ैरा।

    शूटिंग ख़त्म हुई तो जल्दी जल्दी डेसाई के कपड़े तब्दील कराए गए, उस के बदन को अच्छी तरह ख़ुश्क किया गया। फिर उस को एक पैग ब्रांडी का दिया गया।

    ये उस के हलक़ से नीचे उतरी तो उसने बहकना शुरू कर दिया। इतनी क़लील मिक़दार ही ने उसे पूरा शराबी बना दिया, कमरे में सिर्फ़ मैं मौजूद था, चुनांचे वो मुझे लुक़्नत भरे लहजे में अपने तमाम कारनामों की दास्तान सुनाने लगा। कचहरियों में वो कैसे मुक़द्दमा लड़ता था। और किस शानदार और ज़ोरदार तरीक़े पर अपने मुवक्किलों की वकालत करता था।

    डेसाई क़ाइद-ए-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना मरहूम और श्री भोला भाई डेसाई की क़ानूनदानी और उन के ज़ोर-ए-वकालत का बहुत मोअतरिफ़ था। क़ाइद-ए-आज़म मरहूम से वो कई बार शर्फ़-ए-मुलाकात हासिल कर चुका था। और मुतअद्दिद मर्तबा अदालत-ए-आलिया में उनकी मतानवी मोशिगाफ़ियाँ सुन चुका था।

    ग़ालिबन आठ दिन फ़िल्माने ही का ज़माना था कि हुकूमत-ए-पंजाब ने ज़ेर-ए-दफ़ा 292 मेरे वारंट जारी किए। मेरे अफ़साने “बू” पर फ़ह्हाशी का इल्ज़ाम था। उस का ज़िक्र डेसाई से हुआ तो उसने अपनी क़ानूनी वाक़फ़ियत बघारना शुरू कर दी। दफ़्अतन मुझे एक दिल-चस्प शरारत सूझी, वो ये कि अपने मुक़द्दमे की पैरवी के लिए उस को मुंतख़ब करूँ। अदालत में यक़ीनन एक हंगामा बरपा हो जाता। जब वो मेरी तरफ़ से पेश होता। मैंने उस का ज़िक्र मुकर्जी से किया वो फ़ौरन मान गए। बात वाक़ई मज़े की थी।

    गवाहों की फ़हरिस्त बनाई तो मैंने इंडियन चार्ली नूर मुहम्मद को भी इस में शामिल किया। चार्ली और डेसाई सारे लाहौर को अदालत के कमरे में खींचने के लिए काफ़ी थे, उस का तसव्वुर करता तो मेरे सारे वुजूद में हंसी का चश्मा फूटने लगता। मगर अफ़सोस कि शूटिंग की मुश्किलात के बाइस मेरा ये दिल-चस्प ख़्वाब पूरा हुआ।

    डेसाई ने मुताल्लिक़ा दफ़ा के मुताल्लिक़ तमाम मालूमात हासिल कर ली थीं जो मेरे नज़दीक क़तई ज़रूरी नहीं थीं, इस लिए कि मैं तो सिर्फ़ तफ़रीह चाहता था। नूर मुहम्मद चार्ली ने भी अपनी गवाही का ख़ाका तैयार कर लिया था। मगर वो उधर रनजीत में कुछ इस तरह अपने फिल्मों की शूटिंग में मसरूफ़ था कि एक दिन के लिए भी बाम्बे छोड़ नहीं सकता था।

    डेसाई को अफ़सोस था कि उसे अपनी क़ानूनी क़ाबिलियत दिखाने का मौक़ा मिला, कमबख़्त की निगाहों से ये बिलकुल ओझल था कि मुझे उस की इस क़ाबिलियत से कोई दिलचस्पी नहीं थी। मैं तो ये चाहता था कि जब वो अदालत में पेश हो तो बार बार बौखलाए और जो कुछ कहना चाहता है बार बार भूले। पेशावर के पानी को पेशाब बनाए। और इतने री टेक किराये कि सबकी तबीयत साफ़ हो जाये।

    डेसाई मर चुका है। ज़िंदगी में सिर्फ़ एक बार उस ने री-टेक होने नहीं दिया। रीहरसल किए बग़ैर उसने इज़राईल अलैहिस्सलाम के हुक्म की तामील की। और लोगों को मज़ीद हँसाए बग़ैर मौत की गोद में चला गया।

    स्रोत:

    Ganje Farishte (Pg. 165)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1993

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