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इश्क़ हमारा दरपा-ए-जाँ है कैसी ख़ुसूमत करता है

मीर तक़ी मीर

इश्क़ हमारा दरपा-ए-जाँ है कैसी ख़ुसूमत करता है

मीर तक़ी मीर

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    इश्क़ हमारा दरपा-ए-जाँ है कैसी ख़ुसूमत करता है

    चैन नहीं देता है ज़ालिम जब तक आशिक़ मरता है

    शायद लम्बे बाल उस मह के बिखर गए थे बाव चले

    दिल तो परेशाँ था ही मेरा रात से जी भी बिखरता है

    सूरत उस की दीदा-ए-तर में फिरती है हर रोज़-ओ-शब

    है अचम्भा ये भी कहीं पानी में नक़्श उभरता है

    क्या दुश्वार गुज़र है तरीक़-ए-इश्क़ मुसाफ़िर-कुश यारो

    जी से अपने गुज़र जाता है जो इस राह गुज़रता है

    हाल किसू बे-तह का याँ माना है हबाब दरिया से

    टुक जो हवा दुनिया की लगी तो ये कम-ज़र्फ़ अफरता है

    याद ख़ुदा को कर के कहो टुक पास हमारे हो जावे

    सद-साला ग़म देखे उस ख़ुश-चश्म-ओ-रू की बसरता है

    दामन दीदा-ए-तर की वुसअ'त देखे ही बन आवेगी

    अब्र-ए-सियाह-ओ-सफ़ेद जो हो सो पानी इन का भरता है

    दिल की लाग नहीं छुपती है कोई छुपावे बहुतेरा

    ज़र्दी-ए-इश्क़ से बे-उल्फ़त ये रंग किसू का निखरता है

    खींच के तेग़ा अपना हर दम क्या लोगों को डराते हो

    'मीर' जिगर-दार आदमी है वो कब मरने से डरता है

    स्रोत :
    • पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 5, ग़ज़ल नंo- 1770

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