जंगल में चश्म किस से बस्ती की रहबरी की
जंगल में चश्म किस से बस्ती की रहबरी की
साहिब ही ने हमारे ये बंदा-परवरी की
शब सुन के शोर मेरा कुछ की न बे-दिमाग़ी
उस की गली के सग ने किया आदमी-गरी की
करते नहीं हैं दिल ख़ूँ इस रंग से किसू का
हम दिल-शुदों की उन ने क्या ख़ूब दिलबरी की
अल्लह रे क्या नमक है आदम के हुस्न में भी
अच्छी लगी न हम को ख़ुश-सूरती परी की
है अपनी महर-वरज़ी जाँ-काह-ओ-दिल-गुदाज़ाँ
इस रंज में नहीं है उम्मीद बेहतरी की
रफ़्तार-ए-नाज़ का है पामाल एक आलम
उस ख़ुद-नुमा ने कैसी ख़ुद-राई ख़ुद-सरी की
ऐ काश अब न छोड़े सय्याद क़ैदियों को
जी ही से मारती है आज़ादी बे-परी की
उस रश्क-ए-मह से हर शब है ग़ैर से लड़ाई
बख़्त-ए-सियह ने बारे इन रोज़ों यावरी की
खुट-पचरियाँ ही की हैं सर्राफ़ के ने हम से
पैसे दे बे-रुई की फिर ले गए खरी की
गुज़रे बसान-ए-सरसर आलम से बे-तअम्मुल
अफ़्सोस 'मीर' तुम ने क्या सैर सरसरी की
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 4, ग़ज़ल नंo- 1500
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