किन ने लिपटे बाल दिखलाए तिरे मानी के तीं
किन ने लिपटे बाल दिखलाए तिरे मानी के तीं
उन ने जो इस तूल से खींचा परेशानी के तीं
कुश्ता-ए-अंदाज़ किस का था न जाना वो जवाँ
ले रहे थे कुछ मलक इक ना'श क़ुर्बानी के तीं
चश्म-ए-कम से अश्क-ए-ख़ूनीं को न देखो ज़ीनहार
ढूँडते हैं मर्दुम इस याक़ूत-ए-सैलानी के तीं
ताइरान-ए-ख़ुश-म'आश उस बाग़ के हम थे कभू
अब तरसते हैं क़फ़स में इक पर-अफ़्शानी के तीं
है जहान-ए-तंग से जाना ब-'ऐनिह इस तरह
क़त्ल करने ले चलें हैं जैसे ज़िंदानी के तीं
ये कहाँ बिंत-उल-‘इनब से उठती हैं कैफ़िय्यतें
होंटों से क्या उस के निस्बत ऐसी मस्तानी के तीं
दिल जो पानी हो तो आईना है रू-ए-यार का
ख़ाना-आबादी समझ इस ख़ाना-वीरानी के तीं
फ़हम में मेरे न आया पर्दा-दर है तिफ़्ल-ए-अश्क
रोऊँ क्या ऐ हमनशीं मैं अपनी नादानी के तीं
कुछ नज़र मैं ने न की जी के ज़ियाँ पर अपने हाए
दोस्त मैं रक्खे गया उस दुश्मन-ए-जानी के तीं
जब जले छाती बहुत तब अश्क-अफ़्शाँ हो न 'मीर'
क्या जो छिड़का इस दहकती आग पर पानी के तीं
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 2, ग़ज़ल नंo- 0869
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