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अदील ज़ैदी के शेर

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जुदा जो हो गए तस्बीह-ए-रोज़-ओ-शब से 'अदील'

मैं ज़िंदगी में वो दाने पिरो नहीं सकता

दे हौसले की दाद के हम तेरे ग़म में आज

बैठे हैं महफ़िलों को सजाए तिरे बग़ैर

हर तरफ़ अपने ही अपने हाए तन्हाई पूछ

किस क़दर खलती है अक्सर हम को बीनाई पूछ

आज़ादियों के शौक़ हवस ने हमें 'अदील'

इक अजनबी ज़मीन का क़ैदी बना दिया

एहसान-ए-रब मोहब्बतें इतनी मिलीं 'अदील'

इस उम्र-ए-मुख़्तसर में लौटा सकेंगे हम

तेरे होते तो बयाबाँ भी थे गुलशन सारे

तू नहीं है तो ये दुनिया है बयाबाँ जानाँ

मैं इस से क़ीमती शय कोई खो नहीं सकता

'अदील' माँ की जगह कोई हो नहीं सकता

रस्म-ओ-रिवाज छोड़ के सब गए यहाँ

रक्खी हुई हैं ताक़ में अब ग़ैरतें तमाम

मिरा दिल टूट जाने पर मियाँ हैरत भला कैसी

अगर रस्ता बदल जाए सितारे टूट जाते हैं

ख़्वाब ता'बीर कर के देख सकें

राब्ता इस क़दर बहाल था

रस्म-ओ-रिवाज छोड़ के सब गए यहाँ

रक्खी हुई हैं ताक़ में अब ग़ैरतें तमाम

जिस का साकिन है मिरी ज़ात में अब तक ज़िंदा

फूल उस क़ब्र पे जा कर मैं चढ़ाऊँ कैसे

कहाँ के माहिर-ओ-कामिल हो तुम हुनर में 'अदील'

तुम्हारे काम तो पर्वरदिगार करता है

तुझ से जुदा हुए तो ये हो जाएँगे जुदा

बाक़ी कहाँ रहेंगे ये साए तिरे बग़ैर

मुझे तो लगता है जैसे ये काएनात तमाम

है बाज़गश्त यक़ीनन सदा किसी की नहीं

तुझ से जुदा हुए तो ये हो जाएँगे जुदा

बाक़ी कहाँ रहेंगे ये साए तिरे बग़ैर

मिरा दिल टूट जाने पर मियाँ हैरत भला कैसी

अगर रस्ता बदल जाए सितारे टूट जाते हैं

दे हौसले की दाद कि हम तेरे ग़म में आज

बैठे हैं महफ़िलों को सजाए तिरे बग़ैर

तेरी ख़ुशबू के साथ आज 'अदील'

फिर से लौट आई मेरी बीनाई

इसे शाइ'री जानो ये है मेरी आप-बीती

मैं ने लिख दिया है दिल का सभी हाल चलते चलते

निय्यतों की कमी रही वर्ना

मिलना उस का बहुत मुहाल था

वाए क़िस्मत सबब इस का भी ये वहशत ठहरी

दर-ओ-दीवार में रह कर भी मैं बे-घर निकला

तू मुझ से दूर चली जाए ऐन मुमकिन है

मगर वो अक्स जो मेरी नज़र में रहता है

दिल की धड़कन को सुना ग़ौर से कल रात 'अदील'

जिस को मैं ढूँढता रहता हूँ बसा है मुझ में

तेरी जानिब रहा हूँ रूह की तस्कीं को मैं

हसरतें दिल की मैं दुनिया में निकाल आया बहुत

जब अपनी सर-ज़मीन ने मुझ को दी पनाह

अंजान वादियों में उतरना पड़ा मुझे

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