अमीरुल इस्लाम हाशमी के शेर
बहुत मुश्किल था जिन को ढूँडना मेक-अप के मलबे से
सो अंदाज़े से उन का बाँकपन लिखना पड़ा मुझ को
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छोड़ा है जब से पर्दा मर्दा गई है औरत
रद्द-ओ-बदल है क्या क्या ये अर्ज़ फिर करूँगा
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बसा-औक़ात हुर्मत भी क़लम की दाव पर रख दी
लुटेरों को मुहिब्बान-ए-वतन लिखना पड़ा मुझ को
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मिरी मजबूरियों ने नाज़ुकी का ख़ून कर डाला
हर इक गोभी-बदन को गुल-बदन लिखना पड़ा मुझ को
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अर्क़ुन्निसा का नुस्ख़ा मेहरुन्निसा ने लिखा
नुस्ख़े में क्या लिखा था ये अर्ज़ फिर करूँगा
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किसी मिस से जो नादानी में कुछ मिस्टेक हो जाए
दुआ करते हैं नादानी भी फाल-ए-नेक हो जाए
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रुके जिस दम वो दम लेने तो सद्र-ए-अंजुमन बोलीं
हमारी नस्ल-ए-आइंदा भी अब आने ही वाली है
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सुना है मूड में बारा बजे वो आता है
सो उस के मूड से पहले खिसक के देखते हैं
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सुना है उस को बहुत से उचक्के देखते हैं
सो हम भी दामन-ए-तक़्वा झटक के देखते हैं
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टैग : तंज़-ओ-मिज़ाह
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