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अंजुम ख़लीक़

1950

पाकिस्तान के शायर और पत्रकार

पाकिस्तान के शायर और पत्रकार

अंजुम ख़लीक़ के शेर

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कैसा फ़िराक़ कैसी जुदाई कहाँ का हिज्र

वो जाएगा अगर तो ख़यालों में आएगा

इंसान की निय्यत का भरोसा नहीं कोई

मिलते हो तो इस बात को इम्कान में रखना

कहो क्या मेहरबाँ ना-मेहरबाँ तक़दीर होती है

कहा माँ की दुआओं में बड़ी तासीर होती है

ज़मीं की गोद में इतना सुकून था 'अंजुम'

कि जो गया वो सफ़र की थकान भूल गया

क्या जानें सफ़र ख़ैर से गुज़रे कि गुज़रे

तुम घर का पता भी मिरे सामान में रखना

बीते हुए लम्हात को पहचान में रखना

मुरझाए हुए फूल भी गुल-दान में रखना

अल्लाह के घर देर है अंधेर नहीं है

तू यास के मौसम में भी उम्मीद का फ़न सीख

सो मेरी प्यास का दोनों तरफ़ इलाज नहीं

उधर है एक समुंदर इधर है एक सराब

हम ऐसे लोग बहुत ख़ुश-गुमान होते हैं

ये दिल ज़रूर तिरा ए'तिबार कर लेगा

ख़ुद को अज़िय्यतें दे मुझ को अज़िय्यतें दे

ख़ुद पे भी इख़्तियार रख मुझ पे भी ए'तिबार कर

मैं अब तो शहर में इस बात से पहचाना जाता हूँ

तुम्हारा ज़िक्र करना और करते ही चले जाना

इक ग़ज़ल लिक्खी तो ग़म कोई पुराना जागा

फिर उसी ग़म के सबब एक ग़ज़ल और कही

ज़बाँ-बंदी के मौसम में गली-कूचों की मत पूछो

परिंदों के चहकने से शजर आबाद होते हैं

मिरे जुनूँ को हवस में शुमार कर लेगा

वो मेरे तीर से मुझ को शिकार कर लेगा

कहो क्या बात करती है कभी सहरा की ख़ामोशी

कहा उस ख़ामुशी में भी तो इक तक़रीर होती है

सरों से ताज बड़े जिस्म से अबाएँ बड़ी

ज़माने हम ने तिरा इंतिख़ाब देख लिया

मिरी हवस के मुक़ाबिल ये शहर छोटे हैं

ख़ला में जा के नई बस्तियाँ तलाश करूँ

सितम तो ये है कि फ़ौज-ए-सितम में भी 'अंजुम'

बस अपने लोग ही देखूँ जिधर निगाह करूँ

ज़रफ़िशाँ है मिरी ज़रख़ेज़ ज़मीनों का बदन

ज़र्रा ज़र्रा मिरे पंजाब का पारस निकला

अज़िय्यतों की भी अपनी ही एक लज़्ज़त है

मैं शहर शहर फिरूँ नेकियाँ तलाश करूँ

बस निगार-ए-ज़ीस्त यक़ीं गया हमें

ये तेरी बे-रुख़ी ये तअम्मुल जाएगा

ज़रा सी मैं ने तरजीहात की तरतीब बदली थी

कि आपस में उलझ कर रह गए दुनिया दीं मेरे

तहय्युर है बला का ये परेशानी नहीं जाती

कि तन ढकने पे भी जिस्मों की उर्यानी नहीं जाती

जिन को कहा जा सका जिन को सुना नहीं गया

वो भी हैं कुछ हिकायतें उन को भी तू शुमार कर

नख़्ल-ए-अना में ज़ोर-ए-नुमू किस ग़ज़ब का था

ये पेड़ तो ख़िज़ाँ में भी शादाब रह गया

ये कौन निकल आया यहाँ सैर-ए-चमन को

शाख़ों से महकते हुए ज़ेवर निकल आए

मिरी ता'मीर बेहतर शक्ल में होने को है 'अंजुम'

कि जंगल साफ़ होने से नगर आबाद होते हैं

वहशत-ए-हिज्र भी तन्हाई भी मैं भी 'अंजुम'

जब इकट्ठे हुए सब एक ग़ज़ल और कही

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे

हम जैसा मगर ज़ौक़-ए-क़वाफ़ी नहीं रखते

ख़ुमार-ए-क़ुर्बत-ए-मंज़िल था ना-रसी का जवाज़

गली में के मैं उस का मकान भूल गया

अगर आता हूँ साहिल पर तो आँधी घेर लेती है

समुंदर में उतरता हूँ तो तुग़्यानी नहीं जाती

फ़िराक़-रुत में भी कुछ लज़्ज़तें विसाल की हैं

ख़याल ही में तिरे ख़ाल-ओ-ख़द उभारा करें

ये कौन है कि जिस को उभारे हुए है मौज

वो शख़्स कौन था जो तह-ए-आब रह गया

हाथ आएगा क्या साहिल-ए-लब से हमें 'अंजुम'

जब दिल का समुंदर ही गुहर-बार नहीं है

उन संग-ज़नों में कोई अपना भी था शायद

जो ढेर से ये क़ीमती पत्थर निकल आए

ख़ातिर से जो करना पड़ी कज-फ़हम की ताईद

लगता था कि इंकार-कुशी एक हुनर है

मिरी ख़ातिर से ये इक ज़ख़्म जो मिट्टी ने खाया है

ज़रा कुछ और ठहरो इस के भरते ही चले जाना

बहुत साबित-क़दम निकलें गए वक़्तों की तहज़ीबें

कि अब उन के हवालों से खंडर आबाद होते हैं

उसी शरर को जो इक अहद-ए-यास ने बख़्शा

कभी दिया कभी जुगनू कभी सितारा करें

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