असलम महमूद
ग़ज़ल 21
अशआर 19
तेग़-ए-नफ़स को बहुत नाज़ था रफ़्तार पर
हो गई आख़िर मिरे ख़ूँ में नहा कर ख़मोश
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गुज़रते जा रहे हैं क़ाफ़िले तू ही ज़रा रुक जा
ग़ुबार-ए-राह तेरे साथ चलना चाहता हूँ मैं
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देख आ कर कि तिरे हिज्र में भी ज़िंदा हैं
तुझ से बिछड़े थे तो लगता था कि मर जाएँगे
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हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़
जब थम गया तूफ़ाँ तो क़दम घर से निकाला
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तेरे कूचे की हवा पूछे है अब हम से
नाम क्या है क्या नसब है हम कहाँ के हैं
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