अतहर नासिक

ग़ज़ल 14

अशआर 8

सूरज लिहाफ़ ओढ़ के सोया तमाम रात

सर्दी से इक परिंदा दरीचे में मर गया

न-जाने कौन सी मजबूरियाँ हैं जिन के लिए

ख़ुद अपनी ज़ात से इंकार करना पड़ता है

यक़ीन बरसों का इम्कान कुछ दिनों का हूँ

मैं तेरे शहर में मेहमान कुछ दिनों का हूँ

मैं उसे सुब्ह जानूँ जो तिरे संग नहीं

मैं उसे शाम मानूँ कि जो तेरे बिन है

मैं पूछ लेता हूँ यारों से रत-जगों का सबब

मगर वो मुझ से मिरे ख़्वाब पूछ लेते हैं

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aah ko chahiye ek umr asar hote tak SHAMSUR RAHMAN FARUQI

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