अज़हर अदीब के शेर
तू अपनी मर्ज़ी के सभी किरदार आज़मा ले
मिरे बग़ैर अब तिरी कहानी नहीं चलेगी
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हम ने घर की सलामती के लिए
ख़ुद को घर से निकाल रक्खा है
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लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
अब तो ज़हर अल्फ़ाज़ में रक्खा जाता है
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समझ में आ तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी
मगर इस के लिए मा'सूम होना लाज़मी है
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हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
किसी गुल में महकना है किसी बादल में रहना है
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एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
आज का मौसम गुज़िश्ता रोज़ से अच्छा तो है
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जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ
बस इतनी सी बात मिरे इम्कान में रख
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हवा को ज़िद कि उड़ाएगी धूल हर सूरत
हमें ये धुन है कि आईना साफ़ करना है
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बे-ख़्वाबी कब छुप सकती है काजल से भी
जागने वाली आँख में लाली रह जाती है
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हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
वो मो'जिज़े जो कभी रूनुमा नहीं होते
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सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
अब तिरे शहर में हालात की सूरत क्या है
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सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
कोई इस शहर में आया हुआ लगता है मुझे
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इस लिए मैं ने मुहाफ़िज़ नहीं रक्खे अपने
मिरे दुश्मन मिरे इस जिस्म से बाहर कम हैं
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जो ज़िंदगी की माँग सजाते रहे सदा
क़िस्तों में बाँट कर उन्हें जीना दिया गया
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मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से
वही लम्हा मिरा इंकार करना चाहता है
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लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
जब दुश्मन हो अपने जैसा ख़ुद-सर भी और हम-सर भी
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कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
जो पानी आँख के अंदर कहीं ठहरा हुआ है
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हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
लहू में गूँध के मिट्टी जो घर बनाए गए
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इतना भी इंहिसार मिरे साए पर न कर
क्या जाने कब ये मोम की दीवार गिर पड़े
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उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
यही तन्हाई तो मेरे लिए सीढ़ी बनी है
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ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम
घने जंगल में किरनों के लिए रस्ता बनाते हैं
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मेरे हरे वजूद से पहचान उस की थी
बे-चेहरा हो गया है वो जब से झड़ा हूँ मैं
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