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इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

1727 - 1755 | दिल्ली, भारत

मीर तक़ी ' मीर ' के समकालीन और उनके प्रतिद्वंदी के तौर पर प्रसिद्ध। उन्हे उनके पिता ने क़त्ल किया।

मीर तक़ी ' मीर ' के समकालीन और उनके प्रतिद्वंदी के तौर पर प्रसिद्ध। उन्हे उनके पिता ने क़त्ल किया।

इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन के शेर

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मुझे ज़ंजीर कर रक्खा है इन शहरी ग़ज़ालों ने

नहीं मालूम मेरे बा'द वीरानों पे क्या गुज़री

सौ सौ हैं इल्तिफ़ात तग़ाफ़ुल में यार के

बेगानगी से उस की कोई आश्ना नहीं

उम्र फ़रियाद में बर्बाद गई कुछ हुआ

नाला मशहूर ग़लत है कि असर करता है

ख़ल्वत हो और शराब हो माशूक़ सामने

ज़ाहिद तुझे क़सम है जो तू हो तो क्या करे

तसव्वुर उस दहान-ए-तंग का रुख़्सत नहीं देता

जो टुक दम मार सकते हम तो कुछ फ़िक्र-ए-सुख़न करते

मिस्र में हुस्न की वो गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ

जिंस तो है पे ज़ुलेख़ा सा ख़रीदार कहाँ

अगरचे इश्क़ में आफ़त है और बला भी है

निरा बुरा नहीं ये शग़्ल कुछ भला भी है

इस अश्क आह में सौदा बिगड़ जाए कहीं

ये दिल कुछ आब-रसीदा है कुछ जला भी है

चश्म-ए-तर पर गर नहीं करता हवा पर रहम कर

दे ले साक़ी हम को मय ये अब्र-ए-बाराँ फिर कहाँ

ये वो आँसू हैं जिन से ज़ोहरा आतिशनाक हो जावे

अगर पीवे कोई उन को तो जल कर ख़ाक हो जावे

सरीर-ए-सल्तनत से आस्तान-ए-यार बेहतर था

हमें ज़िल्ल-ए-हुमा से साया-ए-दीवार बेहतर था

हक़ मुझे बातिल-आश्ना करे

मैं बुतों से फिरूँ ख़ुदा करे

दोस्ती बद बला है इस में ख़ुदा

किसी दुश्मन को मुब्तला करे

क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद

बर्ग-ए-गुल की तरह हर नाख़ुन मोअत्तर हो गया

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