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इरफ़ान सत्तार

1968 | कनाडा

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इरफ़ान सत्तार के शेर

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बराए अहल-ए-जहाँ लाख कज-कुलाह थे हम

गए हरीम-ए-सुख़न में तो आजिज़ी से गए

यूँही रुका था दम लेने को, तुम ने क्या समझा?

हार नहीं मानी थी बस सुस्ताने बैठा था

क्या बताऊँ कि जो हंगामा बपा है मुझ में

इन दिनों कोई बहुत सख़्त ख़फ़ा है मुझ में

उस की ख़्वाहिश पे तुम को भरोसा भी है उस के होने होने का झगड़ा भी है

लुत्फ़ आया तुम्हें गुमरही ने कहा गुमरही के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल

आबाद मुझ में तेरे सिवा और कौन है?

तुझ से बिछड़ रहा हूँ तुझे खो नहीं रहा

राज़-ए-हक़ फ़ाश हुआ मुझ पे भी होते होते

ख़ुद तक ही गया 'इरफ़ान' भटकता हुआ मैं

तुम गए हो तो अब आईना भी देखेंगे

अभी अभी तो निगाहों में रौशनी हुई है

ये कैसे मलबे के नीचे दबा दिया गया हूँ

मुझे बदन से निकालो मैं तंग गया हूँ

रोक लेता है अबद वक़्त के उस पार की राह

दूसरी सम्त से जाऊँ तो अज़ल पड़ता है

नहीं नहीं मैं बहुत ख़ुश रहा हूँ तेरे बग़ैर

यक़ीन कर कि ये हालत अभी अभी हुई है

मैं जाग जाग के किस किस का इंतिज़ार करूँ

जो लोग घर नहीं पहुँचे वो मर गए होंगे

कोई मिला तो किसी और की कमी हुई है

सो दिल ने बे-तलबी इख़्तियार की हुई है

मैं तुझ से साथ भी तो उम्र भर का चाहता था

सो अब तुझ से गिला भी उम्र भर का हो गया है

तेरे माज़ी के साथ दफ़्न कहीं

मेरा इक वाक़िआ नहीं मैं हूँ

मंज़रों से बहलना ज़रूरी नहीं घर से बाहर निकलना ज़रूरी नहीं

दिल को रौशन करो रौशनी ने कहा रौशनी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल

वो गुफ़्तुगू जो मिरी सिर्फ़ अपने-आप से थी

तिरी निगाह को पहुँची तो शाइरी हुई है

उसे बताया नहीं हिज्र में जो हाल हुआ

जो बात सब से ज़रूरी थी वो छुपा गया हूँ

इस में नहीं है दख़्ल कोई ख़ौफ़ हिर्स का

इस की जज़ा, इस की सज़ा है, ये इश्क़ है

राख के ढेर पे क्या शोला-बयानी करते

एक क़िस्से की भला कितनी कहानी करते

तअल्लुक़ात के बर्ज़ख़ में ऐन-मुमकिन है

ज़रा सा दुख वो मुझे दे तो मैं तिरा हो जाऊँ

हाँ ख़ुदा है, इस में कोई शक की गुंजाइश नहीं

इस से तुम ये मत समझ लेना ख़ुदा मौजूद है

यहाँ जो है कहाँ उस का निशाँ बाक़ी रहेगा

मगर जो कुछ नहीं वो सब यहाँ बाक़ी रहेगा

ताब-ए-यक-लहज़ा कहाँ हुस्न-ए-जुनूँ-ख़ेज़ के पेश

साँस लेने से तवज्जोह में ख़लल पड़ता है

ज़रा अहल-ए-जुनूँ आओ हमें रस्ता सुझाओ

यहाँ हम अक़्ल वालों का ख़ुदा गुम हो गया है

मुझे दुख है कि ज़ख़्म रंज के इस जमघटे में

तुम्हारा और मेरा वाक़िआ गुम हो गया है

ये उम्र की है बसर कुछ अजब तवाज़ुन से

तिरा हुआ ही ख़ुद से निबाह मैं ने किया

ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त को पलकों से सीते हुए साँस लेने की आदत में जीते हुए

अब भी ज़िंदा हो तुम ज़िंदगी ने कहा ज़िंदगी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल

इक चुभन है कि जो बेचैन किए रहती है

ऐसा लगता है कि कुछ टूट गया है मुझ में

वो जिस ने मुझ को तिरे हिज्र में बहाल रखा

तू गया है तो क्या उस से बेवफ़ा हो जाऊँ

तेरी सूरत में तुझे ढूँड रहा हूँ मैं भी

ग़ालिबन तू भी मुझे ढूँड रहा है मुझ में

पूछिए कि वो किस कर्ब से गुज़रते हैं

जो आगही के सबब ऐश-ए-बंदगी से गए

किसी आहट में आहट के सिवा कुछ भी नहीं अब

किसी सूरत में सूरत के सिवा क्या रह गया है

ऐसी दुनिया में कब तक गुज़ारा करें तुम ही कह दो कि कैसे गवारा करें

रात मुझ से मिरी बेबसी ने कहा बेबसी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल

किस अजब साअत-ए-नायाब में आया हुआ हूँ

तुझ से मिलने मैं तिरे ख़्वाब में आया हुआ हूँ

हर एक रंज उसी बाब में किया है रक़म

ज़रा सा ग़म था जिसे बे-पनाह मैं ने किया

जो अक़्ल से बदन को मिली थी, वो थी हवस

जो रूह को जुनूँ से मिला है, ये इश्क़ है

तुम्हें फ़ुर्सत हो दुनिया से तो हम से के मिलना

हमारे पास फ़ुर्सत के सिवा क्या रह गया है

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