कौसर नियाज़ी के शेर
चंद लम्हों के लिए एक मुलाक़ात रही
फिर न वो तू न वो मैं और न वो रात रही
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अपने वहशत-ज़दा कमरे की इक अलमारी में
तेरी तस्वीर अक़ीदत से सजा रक्खी है
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ज़रूर तेरी गली से गुज़र हुआ होगा
कि आज बाद-ए-सबा बे-क़रार आई है
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तुझे कुछ उस की ख़बर भी है भूलने वाले
किसी को याद तेरी बार बार आई है
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वो मिल न सके याद तो है उन की सलामत
इस याद से भी हम ने बहुत काम लिया है
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ऐ मसीहा कभी तू भी तो उसे देखने आ
तेरे बीमार को सुनते हैं कि आराम नहीं
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हाल-ए-दिल उस को सुना कर है बहुत ख़ुश 'कौसर'
लेकिन अब सोच ज़रा क्या तिरी औक़ात रही
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ये दर्द कि है तेरी मोहब्बत की अमानत
मर जाएँगे इस दर्द का दरमाँ न करेंगे
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बे-सबब आज आँख पुर-नम है
जाने किस बात का मुझे ग़म है
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उस ने इख़्लास के मारे हुए दीवाने को
एक आवारा ओ बदनाम सा शायर जाना
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परखने वाले मुझे देख इस तरह भी ज़रा
अगर है खोट तो कैसे चमक रहा हूँ मैं
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मैं ने हर गाम उसे अव्वल ओ आख़िर जाना
लेकिन उस ने मुझे लम्हों का मुसाफ़िर जाना
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तबाही की घड़ी शायद ज़माने पर नहीं आई
अभी अपने किए पर आदमी शर्मा ही जाता है
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जज़्बात में आ कर मरना तो मुश्किल सी कोई मुश्किल ही नहीं
ऐ जान-ए-जहाँ हम तेरे लिए जीना भी गवारा करते हैं
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हर मरहला-ए-ग़म में मिली इस से तसल्ली
हर मोड़ पे घबरा के तिरा नाम लिया है
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बर-सर-ए-आम इक़रार अगर ना-मुम्किन है तो यूँही सही
कम-अज़-कम इदराक तो कर ले गुन बे-शक मत मान मिरे
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मंजधार में नाव डूब गई तो मौजों से आवाज़ आई
दरिया-ए-मोहब्बत से 'कौसर' यूँ पार उतारा करते हैं
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