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कौसर सीवानी

1933

कौसर सीवानी

ग़ज़ल 10

अशआर 8

ज़िंदगी कुछ तो भरम रख ले वफ़ादारी का

तुझ को मर मर के शब-ओ-रोज़ सँवारा है बहुत

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मैं तो क़ाबिल था उन के दीदार के

उन की चौखट पे मेरी ख़ता ले गई

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हरीफ़ों की तरफ़-दारी से अपना-पन का दम टूटा

बढ़ी कुछ और जब दूरी तो क़ुर्बत का भरम टूटा

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समुंदर की तरह वुसअत हो जिस में

वो क़तरा बहर है क़तरा नहीं है

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जो तोड़ दोगे मुझे तुम भी टूट जाओगे

कि इर्तिबात-ए-सलासिल की इक कड़ी हूँ मैं

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