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माचिस लखनवी

1918 - 1970

माचिस लखनवी के शेर

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और तो कुछ भी नहीं हज़रत-ए-'माचिस' लेकिन

आप में आग लगाने का कमाल अच्छा है

वो उन का ज़माना था जहाँ अक़्ल बड़ी थी

ये मेरा ज़माना है यहाँ भैंस बड़ी है

वाइज़ ने मुझ में देखी है ईमान की कमी

वाइज़ में सिर्फ़ दुम की कसर देखता हूँ मैं

जिस मौलवी को आगे पढ़ाना था मेरा अक़्द

ठहरा है उन का अक़्द उसी मौलवी के साथ

ढूँडिए ख़ैर से जा कर कोई मोटी ससुराल

हाथ जो मुफ़्त में आए तो वो माल अच्छा है

वाइ'ज़ को जो देखो तो घटा-टोप अँधेरा

साक़ी को जो देखो तो किरन फूट रही है

हुक्म बेगम के चला करते हैं जेलर की तरह

अब मिरा घर भी मुझे जेल हुआ जाता है

तादाद में हैं औरतें मर्दों से ज़्यादा

क़व्वालियाँ मौजूद हैं क़व्वाल नदारद

जैसे इस्लाम में है रस्म मुसलमानी की

वैसे ही इश्क़ में है चाक-गरेबानी की

जो भी हारेगा वही गालियाँ देगा उस को

जिस बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है

नज़्म-ए-जहाँ को ज़ेर-ओ-ज़बर देखता हूँ मैं

मादा के इख़्तियार में नर देखता हूँ मैं

साए की तमन्ना में जहाँ बैठ गया हूँ

चंदिया पे वहीं ताक के दीवार गिरी है

अल्लाह-रे रोब-ओ-दाब-ए-जुनूँ भागता है वो

जिस की तरफ़ उठा के नज़र देखता हूँ मैं

इस क़दर सर्फ़ इलाही मिरे ख़ून-ए-दिल का

अब मोहब्बत का बजट फ़ेल हुआ जाता है

मिरे पर उस को सौ दुर्रे कहिए फिर तो क्या कहिए

तिरे आशिक़ की मय्यत डॉक्टर-ख़ाने में रक्खी है

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