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हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते
जीने की शिकायत है तो मर क्यूँ नहीं जाते
एक मोहब्बत काफ़ी है
बाक़ी उम्र इज़ाफ़ी है
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देखते हैं बे-नियाज़ाना गुज़र सकते नहीं
कितने जीते इस लिए होंगे कि मर सकते नहीं
तुम्हें ख़याल नहीं किस तरह बताएँ तुम्हें
कि साँस चलती है लेकिन उदास चलती है
कतराते हैं बल खाते हैं घबराते हैं क्यूँ लोग
सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते
किसे ख़बर कि अहल-ए-ग़म सुकून की तलाश में
शराब की तरफ़ गए शराब के लिए नहीं
उलझते रहने में कुछ भी नहीं थकन के सिवा
बहुत हक़ीर हैं हम तुम बड़ी है ये दुनिया
चाही थी दिल ने तुझ से वफ़ा कम बहुत ही कम
शायद इसी लिए है गिला कम बहुत ही कम
बात ये है कि आदमी शाइर
या तो होता है या नहीं होता
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तुम्हारे वास्ते सब कुछ है मेरे बंदा-नवाज़
मगर ये शर्त कि पहले पसंद आओ मुझे
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ये क्या कहूँ कि मुझ को कुछ गुनाह भी अज़ीज़ हैं
ये क्यूँ कहूँ कि ज़िंदगी सवाब के लिए नहीं
अब याद कभी आए तो आईने से पूछो
'महबूब-ख़िज़ाँ' शाम को घर क्यूँ नहीं जाते
ये दिल-नवाज़ उदासी भरी भरी पलकें
अरे इन आँखों में क्या है सुनो दिखाओ मुझे
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हवा चली तो फिर आँखों में आ गए सब रंग
मगर वो सात बरस लौट कर नहीं आए
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पलट गईं जो निगाहें उन्हीं से शिकवा था
सो आज भी है मगर देर हो गई शायद
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'ख़िज़ाँ' कभी तो कहो एक इस तरह की ग़ज़ल
कि जैसे राह में बच्चे ख़ुशी से खेलते हैं
ये लोग साँस भी लेते हैं ज़िंदा भी हैं मगर
हर आन जैसे इन्हें रोकती है ये दुनिया
हाए फिर फ़स्ल-ए-बहार आई 'ख़िज़ाँ'
कभी मरना कभी जीना है मुहाल
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