मंज़ूर हाशमी के शेर
क़ुबूल कैसे करूँ उन का फ़ैसला कि ये लोग
मिरे ख़िलाफ़ ही मेरा बयान माँगते हैं
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यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी ले कर चराग़ जलता है
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सुना है सच्ची हो नीयत तो राह खुलती है
चलो सफ़र न करें कम से कम इरादा करें
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न जाने उस की कहानी में कितने पहलू हैं
कि जब सुनो तो नया वाक़िआ निकलता है
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मोम के पुतले थे हम और गर्म हाथों में रहे
जिस ने जो चाहा हमें वैसा बना कर ले गया
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कुछ अब के धूप का ऐसा मिज़ाज बिगड़ा है
दरख़्त भी तो यहाँ साएबान माँगते हैं
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टैग : धूप
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पानी में ज़रा देर को हलचल तो हुई थी
फिर यूँ था कि जैसे कोई डूबा ही नहीं था
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मैं उस के बारे में इतना ज़ियादा सोचता हूँ
कि एक रोज़ उसे रू-ब-रू तो होना है
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हदफ़ भी मुझ को बनाना है और मेरे हरीफ़
मुझी से तीर मुझी से कमान माँगते हैं
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पता नहीं कि जुदा हो के कैसे ज़िंदा हैं
हमारा उस का तअ'ल्लुक़ तो जिस्म-ओ-जान का था
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चीख़-ओ-पुकार में तो हैं शामिल तमाम लोग
क्या बात है ये कोई बता भी नहीं रहा
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लिक्खे थे सफ़र पाँव में किस तरह ठहरते
और ये भी कि तुम ने तो पुकारा ही नहीं था
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नई फ़ज़ा के परिंदे हैं कितने मतवाले
कि बाल-ओ-पर से भी पहले उड़ान माँगते हैं
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ज़िंदगी कितनी हसीं कितनी बड़ी ने'मत है
आह मैं हूँ कि उसे पा के भी शर्मिंदा हूँ
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चलो लहू भी चराग़ों की नज़्र कर देंगे
ये शर्त है कि वो फिर रौशनी ज़ियादा करें
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उम्मीद ओ यास की रुत आती जाती रहती है
मगर यक़ीन का मौसम नहीं बदलता है
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कोई मकीं था न मेहमान आने वाला था
तो फिर किवाड़ खुला किस के इंतिज़ार में था
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जो अपनी नींद की पूँजी भी कब की खो चुकी हैं
उन्हीं आँखों में हम इक ख़्वाब रखना चाहते हैं
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हमारे लफ़्ज़ आइंदा ज़मानों से इबारत हैं
पढ़ा जाएगा कल जो आज वो तहरीर करते हैं
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फ़िराक़ बिछड़ी हुई ख़ुशबुओं का सह न सकें
तो फूल अपना बदन पारा पारा करते हैं
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शदीद गर्मी में पहले उन को नदी में नहला दिया गया
हवा में फिर गीले बादलों को झटक के फैला दिया गया
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