हम अदीब से यह तवक़्क़ो रखते हैं कि वो अपनी बेदार-मग़ज़ी, अपनी वुसअत-ए-ख़्याली से हमें बेदार करे। उसकी निगाह इतनी बारीक और इतनी गहरी हो कि हमें उसके कलाम से रुहानी सुरूर और तक़वियत हासिल हो।
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अख़लाक़ियात और अदबियात की मंज़िल-ए- मक़्सूद एक ही है, सिर्फ़ उनके तर्ज़-ए-ख़िताब में फ़र्क़ है। अख़लाक़ियात दलीलों और नसीहतों से अक़्ल और ज़हन को मुतास्सिर करने की कोशिश करती है। अदब ने अपने लिए कैफ़ियात और जज़्बात का दायरा चुन लिया है।
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आर्ट का राज़ ऐसी हक़ीक़त-नुमाई में है जिस पर असलियत का गुमान हो।
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वो कहानी सबसे नाक़िस समझी जाती है जिसमें मक़्सद का साया भी नज़र आए।
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इस वक़्त हिन्दुस्तान को शायरी से ज़्यादा मुसव्विरी की ज़रूरत है। ऐसे मुल्क में जहाँ सद्हा मुख़्तलिफ़ ज़बानें राइज हैं, अगर कोई आम ज़बान राइज हो सकती है तो वो तस्वीर की ज़बान है।