राना आमिर लियाक़त के शेर
अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
मगर ये दरिया मुझे तैरना सिखाता है
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हर साँस नई साँस है हर दिन है मिरा दिन
तक़दीर लिए आती है हर रोज़ नया दिन
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मैं जानता हूँ मोहब्बत में क्या नहीं करना
ये वो जगह है जहाँ क़ैस भी फिसलता है
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आधे घर में मैं होता हूँ आधे घर में तन्हाई
कौन सी चीज़ कहाँ रख दी है कौन मुझे बतलाएगा
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गले लगा के मुझे पूछ मसअला क्या है
मैं डर रहा हूँ तुझे हाल-ए-दिल सुनाने से
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ख़ुदा का शुक्र कि आहट से ख़्वाब टूट गया
मैं अपने इश्क़ में नाकाम होने वाला था
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हज़ार रस्ते तिरे हिज्र के इलाज के हैं
हम अहल-ए-इश्क़ ज़रा मुख़्तलिफ़ मिज़ाज के हैं
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ऐसी प्यारी शाम में जी बहलाने को
पाँव निकाले जा सकते हैं चादर से
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उसे पता है कहाँ हाथ थामना है मिरा
उसे पता है कहाँ पेड़ सूख जाता है
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क़ीमती शय थी तिरा हिज्र उठाए रक्खा
वर्ना सैलाब में सामान कहाँ देखते हैं
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नुक्ता यही अज़ल से पढ़ाया गया हमें
हव्वा बराए-हुस्न है आदम बराए-इश्क़
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दिल इक ऐसा कासा है जिस की गहराई मत पूछो
जितने सिक्के डालोगे उतना ख़ाली रह जाएगा
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मैं उस की नज़रों का कुछ इस लिए भी हूँ क़ाइल
वो जिस को चाहे उसे देखना सिखाता है
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मोहब्बतों के लिए उम्र कम है सो वो शख़्स
सभी शिकायतें कुछ दिन इधर उधर कर दे
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अपना आप पड़ा रह जाता है बस इक अंदाज़े पर
आधे हम इस धरती पर हैं आधे उस सय्यारे पर
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मानूस रौशनी हुई मेरे मकान से
वो जिस्म जब निकल गया रेशम के थान से
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ईंट से ईंट जोड़ कर, ख़्वाब बना रहा हूँ मैं
रख़्ने न डाल मेरे यार' ख़्वाब की देख-भाल में
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मैं हाव-हू पे कहानी को ख़त्म कर दूँगा
ये आम बात नहीं है, इसे ख़बर लिया जाए
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तुझ आँख से झलकता था एहसास-ए-ज़िंदगी
मैं देखता रहा हूँ तुझे ख़ाक-दान से
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