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सनाउल्लाह ज़हीर

ग़ज़ल 4

 

अशआर 7

अपनी मस्ती कि तिरे क़ुर्ब की सरशारी में

अब मैं कुछ और भी आसान हूँ दुश्वारी में

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ख़ला में तैरते फिरते हैं हाथ पकड़े हुए

ज़मीं की एक सदी एक साल सूरज का

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तिरे मकाँ का तक़द्दुस अज़ीज़ था इतना

मैं रहा हूँ गली से परे उतार के पाँव

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मैं दे रहा हूँ तुझे ख़ुद से इख़्तिलाफ़ का हक़

ये इख़्तिलाफ़ का हक़ है मुख़ालिफ़त का नहीं

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मेरा ये दुख कि मैं सिक्का हूँ गए वक़्तों का

तेरा हो कर भी तिरे काम नहीं सकता

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