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अज्ञात

अज्ञात की चित्र शायरी

कई जवाबों से अच्छी है ख़ामुशी मेरी

रोज़ सोचा है भूल जाऊँ तुझे

मुझ को छाँव में रखा और ख़ुद भी वो जलता रहा

पलकों की हद को तोड़ के दामन पे आ गिरा

जिन के किरदार से आती हो सदाक़त की महक

उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता

जो एक लफ़्ज़ की ख़ुशबू न रख सका महफ़ूज़

मिल के होती थी कभी ईद भी दीवाली भी

देखा हिलाल-ए-ईद तो तुम याद आ गए

सरहदें रोक न पाएँगी कभी रिश्तों को

तमाशा देख रहे थे जो डूबने का मिरे

जान लेनी थी साफ़ कह देते

दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था

चेहरा खुली किताब है उनवान जो भी दो

हमारे बाद अंधेरा रहेगा महफ़िल में

जो एक लफ़्ज़ की ख़ुशबू न रख सका महफ़ूज़

पत्थर है तेरे हाथ में या कोई फूल है

तुम मिटा सकते नहीं दिल से मिरा नाम कभी

पीता हूँ जितनी उतनी ही बढ़ती है तिश्नगी

तुम समुंदर की बात करते हो

ज़रा ठहरो हमें भी साथ ले लो कारवाँ वालो

मैं अपने साथ रहता हूँ हमेशा

जो जलाता है किसी को ख़ुद भी जलता है ज़रूर

हम ख़ुदा के कभी क़ाइल ही न थे

सुनते हैं ख़ुशी भी है ज़माने में कोई चीज़

रात ख़्वाब में मैं ने अपनी मौत देखी थी

ज़िंदगी यूँही बहुत कम है मोहब्बत के लिए

आता है यहाँ सब को बुलंदी से गिराना

आता है यहाँ सब को बुलंदी से गिराना

न कोई रंज का लम्हा किसी के पास आए

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