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ज़ीशान नियाज़ी

1974 | कानपुर, भारत

ज़ीशान नियाज़ी के शेर

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मुद्दतों ख़ुद से मुलाक़ात नहीं होती है

रात होती है मगर रात नहीं होती है

मिरा साया भी मुझ से दूर है और तेरी यादें भी

मैं अब इस से ज़ियादा और तन्हा हो नहीं सकता

दूर तक आवाज़ दे आया हूँ मैं

देखना ये है कि आता कौन है

सौ बार टूटने पे भी हारा नहीं हूँ मैं

मिट्टी का इक चराग़ हूँ तारा नहीं हूँ मैं

गुलों की तरह महकते हैं बाग़ में काँटे

अजीब रंग में दौर-ए-बहार आया है

उस ने इतना किया नज़र-अंदाज़

सब की नज़रों में गए हैं हम

एहसान ख़ाक-ए-सहरा पे मजनूँ का है बहुत

वर्ना फ़लक पे उस का पहुँचना मुहाल था

मुझ से नाराज़ भी नहीं है वो

और उस को मना रहा हूँ मैं

इश्क़ की कौन सी मंज़िल पे जुनूँ लाया है

होश ख़ुद के ये कहता है मुझे होश नहीं

एक चेहरा तिरा देखने के लिए

कितने चेहरों से हम को गुज़रना पड़ा

मैं दिन के उजाले में तुझे सोच रहा हूँ

महसूस ये होता है कि कुछ रौशनी कम है

पहले रुख़्सत हुई चमन से बहार

और अब ग़ैरत-ए-चमन भी गई

फ़ज़ाएँ रक़्स में हैं और बरस रही है शराब

किसी ने जाम सू-ए-आसमाँ उछाला है

अब भी रौशन हैं बुज़ुर्गों की हवेली के चराग़

हम किसी नक़्श को धुँदला नहीं होने देते

अपने होने का है एहसास तिरे होने से

ग़ैर मुमकिन है मिरा तुझ से जुदा हो जाना

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