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नज़्म
आदमी-नामा
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी
अब्दाल, क़ुतुब ओ ग़ौस वली-आदमी हुए
नज़ीर अकबराबादी
शेर
छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
लेख
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
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हास्य
पहले पहले शौहर को हर मौसम भीगा लगता है
यूँ समझो बिल्ली के भागों टूटा छीका लगता है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
हास्य
मैं ने पूछा कि ये क्या हाल बना रखा है
न तो मेक-अप है न बालों को सजा रखा है