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ग़ज़ल
कर चुका जश्न-ए-बहाराँ से मैं तौबा 'हक़्क़ी'
फ़स्ल-ए-गुल आ के मिरी जान को रो जाती है
शानुल हक़ हक़्क़ी
रेखाचित्र
शाहिद अहमद देहलवी
ग़ज़ल
तश्हीर-ए-जुनूँ कहिए या ज़ौक़-ए-सुख़न 'हक़्क़ी'
अर्ज़ां हैं मिरे आँसू रुस्वा हैं मिरी आहें
शानुल हक़ हक़्क़ी
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ग़ज़ल
'हक़्क़ी' बहुत है कार-ए-जुनूँ दश्त-ए-ज़ीस्त में
आसूदगान-ए-राह वो सौदा कहाँ से लाएँ
शानुल हक़ हक़्क़ी
ग़ज़ल
ज़िक्र से उस के सँवारा है सुख़न को 'हक़्क़ी'
ख़ुश-मज़ा लगते हैं कानों को तराने अपने
शानुल हक़ हक़्क़ी
ग़ज़ल
मैं ने क्या क्या न कहा शेर में उन से 'हक़्क़ी'
वो फ़क़त सुन के ये कहते रहे हूँ अच्छा है
शानुल हक़ हक़्क़ी
ग़ज़ल
इक नवा हासिल-ए-सद-अहद-ए-फ़ुग़ाँ है 'हक़्क़ी'
बू-ए-गुल लाख बहारों का निशाँ हो जैसे
शानुल हक़ हक़्क़ी
ग़ज़ल
'हक़्क़ी' से सरगिराँ ही सही नुक्ता-दान-ए-शेर
इक रंग है कि है कुछ इसी जान-ए-हार तक
शानुल हक़ हक़्क़ी
ग़ज़ल
'हक़्क़ी' बेचारा आख़िर थक-थका कर सो गया
अपने ज़ख़्मों की वो करता पर्दा-दारी और क्या