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नज़्म
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
शिकवा
ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र
मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
कभी कभी
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साए में छुप के जी लेता
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
साहिर लुधियानवी
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नज़्म
ताज-महल
अन-गिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उन के
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
नज़्म
इस बस्ती के इक कूचे में
जो बात थी इन के जी में थी जो भेद था यकसर अन-जाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ढाका से वापसी पर
उन से जो कहने गए थे 'फ़ैज़' जाँ सदक़े किए
अन-कही ही रह गई वो बात सब बातों के बा'द