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ग़ज़ल
पढ़ता नहीं ख़त ग़ैर मिरा वाँ किसी 'उनवाँ
जब तक कि वो मज़मूँ में तसर्रुफ़ नहीं करता
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
नज़्म
अपनी मल्का-ए-सुख़न से
चेहरे को रंग-ओ-नूर का तूफ़ाँ किए हुए
शम-ओ-शराब-ओ-शे'र का उनवाँ किए हुए
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
है फ़साना इश्क़ का डूबा है साहिल अश्क में
मेरे मज़मूँ का ये उनवाँ तल्ख़ियाँ ही ठीक हैं
ए.आर.साहिल "अलीग"
तंज़-ओ-मज़ाह
सय्यद आबिद अली आबिद
ग़ज़ल
नहीं इक़लीम-ए-उल्फ़त में कोई तूमार-ए-नाज़ ऐसा
कि पुश्त-ए-चश्म से जिस की न होवे मोहर उनवाँ पर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हमारे बाद ही ख़ून-ए-शहीदाँ रंग लाएगा
यही सुर्ख़ी बनेगी ज़ेब-ए-उनवाँ हम नहीं होंगे