aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "कटोरा"
मतबा मुजद्दिदी अमृतसर, कटरा
पर्काशक
थिएटरिकल कंपनी दो महीने तक रही और अपनी बिसात के मुताबिक़ ख़ासा कमा ले गई। इस शह्र के एक सिनेमा मालिक ने सोचा क्यों न इस बस्ती में भी एक सिनेमा खोल दिया जाए। ये ख़याल आने की देर थी कि उसने झट एक मौक़े की जगह चुन कर ख़रीद ली और जल्द-जल्द ता’मीर का काम शुरू’ करा दिया। चन्द ही महीनों में सिनेमा हाल तैयार हो गया। उसके अन्दर एक छोटा सा बाग़ीचा भी लगवाया गया ...
राहत ने फिर किसी बहाने से मुझे पुकारा। “उँह!” मैं जल गई। पर बी आपा ने कटी हुई मुर्ग़ी की तरह जो पलट कर देखा तो मुझे जाना ही पड़ा।“आप हम से ख़फ़ा हो गईं?” राहत ने पानी का कटोरा लेकर मेरी कलाई पकड़ ली। मेरा दम निकल गया और भागी तो हाथ झटक कर।
दहशत से सूरतें उनकी चपटी होने लगीं। और ख़द-ओ-ख़ाल मस्ख़ होते चले गए। और अलियासफ़ ने घूम कर देखा और बंदरों के सिवा किसी को न पाया। जानना चाहिए कि वो बस्ती एक बस्ती थी। समुंदर के किनारे। ऊंचे बुर्जों और बड़े दरवाज़ों वाली हवेलियों की बस्ती, बाज़ारों में खोई से खोह छिलता था। कटोरा बजता था। पर दम के दम में बाज़ार वीरान और ऊंची ड्युढ़ियाँ सूनी हो गईं। और ऊंचे ...
आँखें हैं कटोरा सी वो सितम गर्दन है सुराही-दार ग़ज़बऔर उसी में शराब-ए-सुर्ख़ी-ए-पाँ रखती है झलक फिर वैसी ही
“सोने दोगी या मैं चौपाल पर जा कर पड़ रहूँ?”फिर जब सब ख़ामोश हो गए तो माई ताजो उठ बैठी। उसे लगा कि राहताँ अपने बिस्तर पर पड़ी आँसू बहा रही है। वो दीवार तक गई भी मगर फिर फ़त्हदीन के डर से पलट आई। घड़े में से पानी पिया और देर तक एलूमीनियम का कटोरा अपने चेहरे पर फेरती रही। आज वो कितनी तप रही थी और ये पियाला कितना ठंडा था। अब गर्मियाँ ख़त्म समझो। उसे अपने लिहाफ़ का ख़याल आया जिसकी रूई लकड़ी की तरह सख़्त हो गई थी। अब के उसे धुनवाऊँगी। पर अल्लाह करे उसकी ज़रूरत ही न पड़े। अल्लाह करे अब के लिहाफ़ के बजाए मैं अपना कफ़न ओढूँ।
कटोराکٹورا
bowls
चंद लम्हे वो यूँ चक्की चलाने में मस्रूफ़ रही जैसे मुझे भूल गई है। फिर चक्की रोक कर उठ खड़ी हुई और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी। मैं एक तरफ़ हटा तो वो बाहर आ गई और बोली,“प्यास लगी है... पर बीबी जी का कटोरा झूटा हो जाएगा, मुझे बक में पिला दीजिए!”
इस जुमले ने सज्जाद की ख़ुशियों को चीनी से ढांक दिया। अम्मी ने सरताज के मुताल्लिक़ बहुत मीन मेख़ निकाली लेकिन फ़वाद फ़ौजी आदमी था। अम्मी के हर हमले के लिए उसने बस एक ही ख़ंदक़ खोद रखी थी। फ़ौरन जवाब देता, “देखिए अम्मी, अब मैं आपसे कह रहा हूँ और आप इनकार कर रही हैं। फिर आपकी जानिब से इसरार होगा और मैं कोरा जवाब दूँगा।”अम्मी उस फ़ौजी हट को देखकर सूँ सूँ करने लगीं। सज्जाद को कहने-सुनने का क्या मौक़ा मिलता। वो तो पहले ही हाथ कटवा चुका था, ताजी को बहन कह चुका था। अब पत रखनी लाज़िम थी। बज़ाहिर इसमें किसी क़िस्म का नुक़्स भी निकाल सकता था।
“बाजी बाजी अल्लाह तुम्हारी क़िस्मत पलटेगा”, सितारा को एक दम एहसास हुआ कि साढे़ नौ बज चुके हैं। ज़ुहरा जैसे एक दम जाग पड़ी।“तुम क्या समझ रही हो मुझे, मैं कोई क़िस्मत का कटोरा लेकर कुछ मांगने चली हूँ रियाज़ से?”, ज़ुहरा ने बड़े अजनबी से ग़ुरूर के साथ सितारा की आँखों में आँखें डाल कर पूछा, और सितारा का जी चाहा कि रो पड़े। उसकी बहन हमेशा इससे अलग हो कर सोचती।
देश का एक इक नयन कटोरासारे जहाँ पर डाले डोरा
दूसरे दिन मौलवी साहब बहुत देर से उठे। मौजू डर के मारे खेतों पर न गया। सहन में उनकी चारपाई के पास बैठा रहा। जब वो उठे तो उनको मिस्वाक, नहलाया धुलाया और उनके इरशाद के मुताबिक़ शराब का घड़ा ला कर उनके पास रख दिया। मौलवी साहब ने कुछ पढ़ा। घड़े का मुँह खोल कर उसमें तीन बार फूंका और दो-तीन कटोरे चढ़ा गए। ऊपर आसमान की तरफ़ देखा। कुछ पढ़ा और बुलंद आवाज़ में कहा, “हम तेरे हर इम्तिहान में पूरे उतरेंगे मौला।” फिर वो चौधरी से मुख़ातब हुए, “मौजू जा... हुक्म मिला है अभी जा और अपनी बीवी को ले आ... रास्ता मिल गया है हमें।”
छम्मन ने उसे रज़ाई में समेट लिया और लंबी लंबी साँसें भर कर सूँघने लगे। कैसी महकती है लीमो जैसे पका हुआ दसहरी, जी नहीं भरता, पानी का छलकता कटोरा रोज़ पियो, रोज़ प्यास ताज़ा, मगर इतना प्यार करना ख़ुद-ग़र्ज़ी है। मुरझाई जाती है। नहीं अब वो उसे हाथ भी नहीं लगाएँगे। ये वक़्त यहीं ठहर जा, ना पीछे मुड़ कर देख, ना आगे नज़र डाल कर पीछे छोटा अंधेरा है और आगे? आगे ...
कटोरा ही नहीं है हाथ में बस फ़र्क़ इतना हैजहाँ बैठे हुए हो तुम खड़े हम भी वहीं बाबा
अब तो हम सब सहन से भी मार-मार कर निकाले गए। तय हुआ कि पेड़ों में पानी दिया जाये। बस सारे घर की बालटियाँ, लोटे, तसले, भगोने, पतीलियाँ, लूट ली गईं। जिन्हें ये चीज़ें भी न मिलीं, वो डोंगे और कटोरे गिलास ही ले भागे।अब सब लोग नल पर टूट पड़े। यहाँ पर भी वो घमासान मची कि क्या मजाल जो एक बूँद पानी भी किसी के बर्तन में आ सका हो। ठूसम-ठास किसी बाल्टी पर पतीला, और पतीले पर लोटा और भगोने और डोंगे। पहले तो धक्के चले, फिर कोहनियाँ और उसके बाद बर्तनों ही से एक दूसरे पर हमला कर दिया गया। ज़ाहिर है कि भारी बर्तनों वाले तो हथियार उठाते ही रह गए। कटोरों और डोंगों से लैस फ़ौज ने वो मारके मारे कि सरों पर गोमड़े डाल दिए।
नन्ही की नानी का माँ बाप का नाम तो अल्लाह जाने किया था। लोगों ने कभी उन्हें उस नाम से याद ना किया। जब छोटी सी गलियों में नाक सुड़-सुड़ाती फिरती थीं तो बफ़ातन की लौंडिया के नाम से पुकारी गईं। फिर कुछ दिन “बशीरे की बहू” कहलाईं फिर “बिसमिल्लाह की माँ” के लक़ब से याद की जाने लगीं। और जब बिसमिल्लाह चापे के अंदर ही नन्ही को छोड़कर चल बसी तो वो “नन्ही की नान...
“हुँह...” माँ ने दिए की बे-बिज़ा’त रौशनी में सर हिलाते और चिढ़ाते हुए कहा। “किस का पता नहीं चलेगा...” घमंडी को पता चल गया कि माँ से किसी बात का छुपाना अबस है। माँ जो चौबीस साल एक शराबी की बीवी रही है। घमंडी का बाप जब भी दरवाज़े पर दस्तक दिया करता, माँ फ़ौरन जान लेती कि आज उसके मर्द ने पी रखी है। बल्कि दस्तक से उसे पीने की मिक़दार का भी अंदाज़ा हो जाता था। फिर घमंडी का बाप भी इसी तरह दुबके हुए दाख़िल होता। इसी तरह पछवा के शोर को शर्मिंदा करते हुए। और यही कोशिश करता कि चुपके से सो जाये और उसकी औरत को पता ना चले। लेकिन शराब के मुताल्लिक़ घमंडी की माँ बाप में एक अन लिखा और उन कहा समझौता था। दोनों एक दूसरे को आँखों ही आँखों में समझ जाते थे। पीने के बाद घमंडी का बाप एक भी वाफ़र लफ़्ज़ मुँह से न निकालता और उसकी माँ अपने मर्द को पीने के मुताल्लिक़ कुछ भी न जताती। वो चुपके से खाना निकाल कर उसके सिरहाने रख देती और सोने से पहले मामूल के ख़िलाफ़ पानी का एक बड़ा कटोरा चारपाई के नीचे रखकर ढाँप देती। सुबह होते ही अपने पल्लू से एक-आध सिक्का खोल कर घमंडी की तरफ़ फेंक देती और कहती,
Devoted to the preservation & promotion of Urdu
A Trilingual Treasure of Urdu Words
Online Treasure of Sufi and Sant Poetry
World of Hindi language and literature
The best way to learn Urdu online
Best of Urdu & Hindi Books