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ग़ज़ल
मुबारक सिद्दीक़ी
नज़्म
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
जो काँटे हूँ सब अपने दामन में रख लूँ
सजाऊँ मैं कलियों से राहें तुम्हारी
ताहिर फ़राज़
ग़ज़ल
इलाज-ए-दर्द में भी दर्द की लज़्ज़त पे मरता हूँ
जो थे छालों में काँटे नोक-ए-सोज़न से निकाले हैं