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लेख
मू-ए-‘आतिश’-दीदा है हलक़ा मिरी ज़ंजीर का कीजिए बयाँ सुरूर-ए-तप-ए-ग़म कहाँ तलक...
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
'सुरूर'-ए-सादा को यूँ तो लहू रोना ही आता है
मगर इस सादगी में भी बड़े पहलू निकलते हैं
आल-ए-अहमद सुरूर
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ग़ज़ल
जो हर नज़र में ताज़ा करें मय-कदे हज़ार
सच है 'सुरूर'-ए-रफ़्ता को वो याद क्या करें
आल-ए-अहमद सुरूर
तंज़-ओ-मज़ाह
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन...
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
हमें तो मय-कदे का ये निज़ाम अच्छा नहीं लगता
न हो सब के लिए गर्दिश में जाम अच्छा नहीं लगता
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
दिल में पोशीदा तप-ए-इश्क़-ए-बुताँ रखते हैं
आग हम संग की मानिंद निहाँ रखते हैं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
आइने जितने भी देखे वो मुकद्दर थे 'सुरूर'
जौहर-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा फिर भी हमारा न गया