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संपूर्ण
परिचय
ई-पुस्तक1434
लेख39
उद्धरण30
तंज़-ओ-मज़ाह1
शेर20
ग़ज़ल31
नज़्म6
ऑडियो 11
वीडियो2
चित्र शायरी 6
आल-ए-अहमद सुरूर
लेख 39
उद्धरण 30
शायरी में वाक़िया जब तक तजरबा न बने उसकी अहमियत नहीं है। ख़्याल जब तक तख़य्युल के सहारे रंगा-रंग और पहलूदार न हो, बेकार है। और एहसास जब तक आम और सत्ही एहसास से बुलंद हो कर दिल की धड़कन, लहू की तरंग, रूह की पुकार न बन जाये उस वक़्त तक इसमें वो थरथराहट, गूंज, लपक, कैफ़ियत, तासीर-ओ-दिल-गुदाज़ी और दिलनवाज़ी नहीं आती, जो फ़न की पहचान है।
तंज़-ओ-मज़ाह 1
अशआर 20
हम जिस के हो गए वो हमारा न हो सका
यूँ भी हुआ हिसाब बराबर कभी कभी
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बस्तियाँ कुछ हुईं वीरान तो मातम कैसा
कुछ ख़राबे भी तो आबाद हुआ करते हैं
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हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं
और तो सब कुछ था लेकिन रस्म-ए-दिलदारी न थी
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ग़ज़ल 31
नज़्म 6
पुस्तकें 1466
चित्र शायरी 6
ऑडियो 11
आज से पहले तिरे मस्तों की ये ख़्वारी न थी
कुछ लोग तग़य्युर से अभी काँप रहे हैं
ख़ुदा-परस्त मिले और न बुत-परस्त मिले
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