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नज़्म
रक़ीब से!
तुझ पे बरसा है उसी बाम से महताब का नूर
जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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ग़ज़ल
मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी
तिरा हाथ ज़िंदगी भर कभी जाम तक न पहुँचे
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
अहमद फ़राज़
नज़्म
दो इश्क़
अब चमकेगा बे-सब्र निगाहों का मुक़द्दर
इस बाम से निकलेगा तिरे हुस्न का ख़ुर्शीद