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ग़ज़ल
नुमायाँ हो के दिखला दे कभी उन को जमाल अपना
बहुत मुद्दत से चर्चे हैं तिरे बारीक-बीनों में
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
एक मकड़ा और मक्खी
लटके हुए दरवाज़ों पे बारीक हैं पर्दे
दीवारों को आईनों से है मैं ने सजाया
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
वूहीं अपनी भी है बारीक-तर-अज़-मू गर्दन
तेग़ के साथ यहाँ ज़िक्र-ए-कमर होता है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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नज़्म
हज़रात-ए-इंसाँ
कोई देखे तो है बारीक फ़ितरत का हिजाब इतना
नुमायाँ हैं फ़रिश्तों के तबस्सुम-हा-ए-पिन्हानी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
कमर-ए-यार के मज़कूर को जाने दे मियाँ
तू क़दम इस में न रख राह ये बारीक है दिल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
कहीं ख़ुर्शीद भी छुपता है जी बारीक पर्दे में
उठा दो मुँह से पर्दे को बड़ा पर्दा निकाला है