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ग़ज़ल
मुद्दतों बा'द उस ने आज मुझ से कोई गिला किया
मंसब-ए-दिलबरी पे क्या मुझ को बहाल कर दिया
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नज़्म
इतना मालूम है!
उस ने आहिस्ता से दीवार को थामा होगा
सोच कर ये कि बहल जाए परेशानी-ए-दिल
परवीन शाकिर
नज़्म
औरत
उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे
तेरे क़दमों में है फ़िरदौस-ए-तमद्दुन की बहार