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नज़्म
इस बस्ती के इक कूचे में
गो आग से छाती जलती थी गो आँख से दरिया बहता था
हर एक से दुख नहीं कहता था चुप रहता था ग़म सहता था
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
उमैर नजमी
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नज़्म
जुगनू
जब आसमान में हर सू घटाएँ छाती थीं
ब-वक़्त-ए-शाम जब उड़ते थे हर तरफ़ जुगनू
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
तुम्हारे संग-ए-दर का एक टुकड़ा भी जो हाथ आया
अज़ीज़ ऐसा किया मर कर उसे छाती पे धर रक्खा
अमीर मीनाई
नज़्म
रामायण का एक सीन
छटती हूँ उन से जोग लिया जिन के वास्ते
क्या सब किया था मैं ने इसी दिन के वास्ते