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ग़ज़ल
निगाह-ए-बादा-गूँ यूँ तो तिरी बातों का क्या कहना
तिरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
हसन कूज़ा-गर (1)
संग-बस्ता पड़ी थी
सुराही-ओ-मीना-ओ-जाम-ओ-सुबू और फ़ानूस ओ गुल-दाँ
नून मीम राशिद
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नज़्म
मस्जिद-ए-क़ुर्तुबा
चश्म-ए-फ़िराँसिस भी देख चुकी इंक़लाब
जिस से दिगर-गूँ हुआ मग़रबियों का जहाँ
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
दिगर-गूँ है जहाँ तारों की गर्दिश तेज़ है साक़ी
दिल-ए-हर-ज़र्रा में ग़ोग़ा-ए-रुस्ता-ख़े़ज़ है साक़ी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जुगनू
वो कुछ नहीं है अब इक जुम्बिश-ए-ख़फ़ी के सिवा
ख़ुद अपनी कैफ़ियत-ए-नील-गूँ में हर लहज़ा
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ले रहा है दर-ए-मय-ख़ाना पे सुन-गुन वाइ'ज़
रिंदो हुश्यार कि इक मुफ़सिदा-पर्दाज़ आया
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
हर गोशा-ए-मग़रिब में हर ख़ित्ता-ए-मशरिक़ में
तशरीह दिगर-गूँ है अब तेरे पयामों की