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नज़्म
कभी कभी
इन्ही हसीन फ़सानों में महव हो रहता
पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की
साहिर लुधियानवी
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
सुख़न-वर ईज़द अच्छा था कि आदम या फिर अहरीमन
मज़ीद आंकि सुख़न में वक़्त है वक़्त अब से अब यानी
जौन एलिया
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नज़्म
परछाइयाँ
उन्ही के साए में फिर आज दो धड़कते दिल
ख़मोश होंटों से कुछ कहने सुनने आए हैं
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
तरसती है निगाह-ए-ना-रसा जिस के नज़ारे को
वो रौनक़ अंजुमन की है उन्ही ख़ल्वत-गज़ीनों में