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नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
ख़ुद-कुशी शेवा तुम्हारा वो ग़यूर ओ ख़ुद्दार
तुम उख़ुव्वत से गुरेज़ाँ वो उख़ुव्वत पे निसार
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ख़ुद्दारी-ओ-महरूमी महरूमी-ओ-ख़ुद्दारी
अब दिल को ख़ुदा रक्खे अब दिल का ज़माना है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती है
किसी का भी हो सर क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता
जावेद अख़्तर
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ग़ज़ल
ख़ैरात की जन्नत ठुकरा दे है शान यही ख़ुद्दारी की
जन्नत से निकाला था जिस को तू उस आदम का पोता है
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
बहुत ही ख़ूब शय है इख़्तियारी शान-ए-ख़ुद्दारी
अगर मा'शूक़ भी कुछ और बे-परवा न हो जाए
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
अमीर-ए-शहर हो कर भी नहीं कोई तिरी इज़्ज़त
तिरे हिस्से में ग़ैरत और ख़ुद्दारी नहीं आई