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ग़ज़ल
वैसे ही तारीक बहुत हैं लम्हे ग़म की रातों के
फिर मेरे ख़्वाबों में यारो वो गेसू लहराएँ क्यूँ
कफ़ील आज़र अमरोहवी
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ग़ज़ल
हबीब आरवी
ग़ज़ल
सर-ए-सहरा अभी रक़्स-ए-ग़ुबार-ए-क़ैस बाक़ी है
अभी कुछ और लैलाएँ हरीम-ए-ख़ाक से निकलें
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
ख़ाक-बसर फिरती हैं जिस में लैलाएँ दिन-रात 'मुनीर'
मैं ने अपनी ज़ा में एक ऐसा भी सहरा रक्खा है
मुनीर सैफ़ी
नज़्म
शिकवा
दर्द-ए-लैला भी वही क़ैस का पहलू भी वही
नज्द के दश्त ओ जबल में रम-ए-आहू भी वही
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
वो भी दिन थे कि यही माया-ए-रानाई था
नाज़िश-ए-मौसम-ए-गुल लाला-ए-सहराई था